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________________ गुण से रहित हैं। मेरी सेवा तो दूर परंतु मेरे सामने देखते भी नहीं हैं। परंतु मैंने यह गलत विचार किया, क्योंकि ये मुनिजन अपने देह की भी परिचर्या करते नहीं हैं, तो मुझ भ्रष्ट चरित्रवाले की सेवा तो करे ही क्यों? इसलिये अब तो जब यह व्याधि शांत हो जावे तब एक शिष्य बनाऊँ।' इस प्रकार सोचते सोचते कई दिनों के बाद मरीचि व्याधि रहित बना। ___ एक बार उसे कपिल नाम कुलपुत्र मिला। धर्म का अर्थी था, उसने कपिल को आहत धर्म कह सुनाया। उस समय कपिल ने उनको पूछा, 'आप स्वयं इस धर्म का क्यों आचरण नहीं करते हो?' मरीचि बोला, 'मैं यह धर्म पालने में समर्थ नहीं हूँ।' कपिल ने कहा, 'तो क्या तुम्हारे मार्ग में धर्म नहीं है?' ऐसे प्रश्न से जिन धर्म में आलसी शिष्य की कामना रखता मरीचि बोला, 'जैन मार्ग में भी धर्म है और मेरे मार्ग में भी धर्म है।' यह सुनकर कपिल उसका शिष्य बना। उस समय उत्सूत्र भाषण (मिथ्याधर्म के उपदेश)से मरीचि ने कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण . संसार कर्म का उपार्जन किया। उस पाप की कोई भी आलोचना करे बिना अनसन से मृत्यु पाकर मरीचि ब्रह्म देवलोक में दस सागरोपम के आयुष्यवाला देवता बना। कपिल भी आसूरि वगैरह अपने शिष्य बनाकर उन्हे अपने आचार का उपदेश देकर मृत्यु पाकर ब्रह्म देवलोक में देव हुए। वहाँ अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म को जानकर वह पृथ्वी पर आया और आसूरि वगैरह को अपना सांख्यमत बताया। उसके प्रभाव से इस पृथ्वी पर सांख्यदर्शन प्रवृत्त हुआ। 'आत्मप्रशंसा और अभिमान करने से मरीचि ने नीच गोत्र कर्म उपार्जित किया और उत्सूत्र की प्ररूपणा करने से असंख्य भव किये। तीर्थंकर भगवान के शास्त्रों से विरुद्ध न बोलना और अभिमान न करना - इतना बोधपाठ सबको ग्रहण करने जैसा है। । है ज्ञान मगर कुछ ध्यान नही, पहचान के सब कुछ सोता है। ये दुनिया है अपने मतलब की, यहां कौन किसी का होता है। जिन शासन के चमकते हीरे • २१३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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