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________________ से विकल्प रखकर परिव्राजक का नया भेष धरा। उसको नवीन वेषधारी देखकर लोग धर्म पूछते थे परंतु मरीचि तो उन्हें श्री जिनेश्वर ने प्ररुपित किया साधूधर्म ही कहता था। सर्व को जब वह ऐसे शुद्ध धर्म की देशना का प्ररूपण करता तब लोग उसको पूछते, 'आप स्वयं क्यों ऐसे धर्म का आचरण नहीं करते?' उसके जवाब में वह कहता, 'मैं उस मेरु समान भारी चारित्र का वहन करने में समर्थ नहीं हूँ।' ऐसा कहकर अपने सर्व विकल्प वह कह सुनाता था। इस प्रकार उनके संशय दूर करके प्रतिबोध किये हुए वे भव्य जीव जब दीक्षा लेने के लिये तैयार होते तब मरीचि उनको श्री युगादीश के पास ही भेजता था। इस प्रकार आचार पालते हुए मरीचि स्वामी के साथ ही विहार करता था। क्रमानुसार विहार करते हुए स्वामी विनीता नगरी में पधारे। भरतचक्री ने आकर प्रभु को वंदना की। पश्चात् भविष्य में होनेवाले तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव वगैरह का स्वरूप पूछा, तो प्रभु ने उन सर्व का वर्णन किया। चक्री ने पूछा, 'हे स्वामी! इस पर्षदा में कोई जीव है जो इस भरतक्षेत्र में आपके जैसा तीर्थंकर बननेवाला हो?' स्वामी बोले, 'यह तेरा पुत्र मरीचि इस भरतक्षेत्र में वीर नामक चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा। तथा उससे पूर्व इस भरतक्षेत्र में प्रथम वासुदेव होगा तथा महाविदेह क्षेत्र में चक्रवर्ती होगा।' यह सुनकर भरतचक्री मरीचि के पास जाकर उसकी प्रदक्षिणापूर्वक वंदना करके बोला, 'आपका यह पारिव्राजकता वंदन करने योग्य नहीं है, फिर भी आप भावि तीर्थंकर हो इसलिये मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ।' ऐसा कहकर प्रभु का कहा हुआ सर्व वृत्तांत मरीचि को कह बताया। वह सुनकर मरीचि महाहर्ष से अपनी काँख को तीन बार आस्फोटित करके उच्च स्वर में बोला, 'मैं प्रथम वासुदेव बनूंगा, मूकानगरी में मैं चक्रवर्ती बनूंगा तथा अंतिम तीर्थंकर भी मैं बनूंगा। अहो! मेरा कुल कितना उत्तम?' और 'मैं वासुदेवों में प्रथम, मेरे पिता चक्रवर्ती में प्रथम और मेरे पितामह तीर्थंकरो में प्रथम !! अहो! मेरा कुल कितना उत्तम है?' इत्यादि आत्मप्रशंसा और अभिमान करने से उसने नीच गौत्र कर्म उपार्जित किया। एक बार उस मरीचि के शरीर में व्याधि उत्पन्न हुआ; उसकी सेवा किसी साधु ने न की, इससे वह ग्लानि पाकर सोचने लगा, 'अहो! ये साधू दाक्षिण्य जिन शासन के चमकते हीरे • २१२
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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