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________________ • मरीचि कुमार - भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचिकुमार एक बार चक्री के साथ आदीश्वर भागवान को वंदन करने गया। वहाँ ऋषभ स्वामी के मुख से स्याद्वाद धर्म का श्रवण करके प्रतिबोध पाकर उसने दीक्षा ग्रहण की। स्थविर मुनियो के पास रहकर ग्यारह अंग का अभ्यास किया और स्वामी के साथ चिरकाल विहार किया । ८१ एक बार ग्रीष्म ऋतु की धूप से पीड़ित हुए मरीचि मुनि चारित्रावरण कर्म का उदय होने से इस प्रकार सोचने लगे, 'मेरु पर्वत जितना भारी और वहन न हो सके ऐसे मुनि के गुणों को वहन करने, सुख की आकांक्षावाला मैं निर्गुणी अब समर्थ नहीं हूँ, तो क्या मैं लिये हुए व्रत का त्याग करू? नहीं... त्याग करने से तो लोगों में मेरी हाँसी होगी, परंतु व्रत का सर्वथा भंग न हो ओर मुझे क्लेश भी न हो ऐसा एक उपाय मुझे सूझा है; ये पूज्य मुनिवरों ने हंमेशा मन, वचन और काया के तीनों दण्ड से पराभव पाया है इसलिये मुझे त्रिदण्ड का चिह्न हो । ये मुनि जितेन्द्रिय होने से केश लोचन करते हैं और मैं उनके द्वारा जिता हुआ होने से मेरा मुण्डन अस्त्रे से हो, तथा मस्तक पर शिखा हो। ये मुनि महाव्रत को धारण करनेवाले हैं और मैं तो अणुव्रत धारण करने में असमर्थ हूँ। ये मुनि सर्वथा परिग्रह से रहित है पर मुझे तो एक मुद्रिका मात्र परिग्रह हो । ये मुनि मोह के ढक्कनरहित और मैं तो मोह से आच्छादित हूँ, जिसमें मेरे सिर पर छत्र धारण करनेलायक हो । ये महाऋषि पैर में उपानह पहने बिना ही विचरते हैं परंतु मेरे पाँव की रक्षा के लिये उपानह हो । ये मुनि शील से ही सुगंधी के लिये चंदन के तिलक आदि हो । ये मुनि कषायरिहत होने से श्वेत वस्त्र धारण करते हैं परंतु मैं क्रोधादि कषायवाला होने से मुझे कषाय रंगवाले वस्त्र हो । ये मुनि बहुत जीवों की हिंसावाले सचित जल का त्याग करते हैं लेकिन मुझे तो स्नान तथा पान परिमित जल से हो।' इस प्रकार चारित्र का निर्वाह करने संबंधी कष्ट सहन करने में कायर बने मरीचि ने अपनी बुद्धि जिन शासन के चमकते हीरे २११
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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