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________________ ७७ शियलवती जंबूद्वीप के नंदन नामक नगर में रत्नाकर नामक एक श्रेष्ठी रहता था। उसको पुत्र न था। इस कारण उसने अजितनाथ भगवंत की शासनदेवी अजितबाला की आराधना की, जिससे अजितसेन नामक पुत्र हुआ। वह बड़ा होकर शियलवती नामक स्त्री से ब्याहा। शियलवती ने शकुन शास्त्रादि का अभ्यास किया था। शकुन शास्त्र अनुसार व्यापार करने से अनेक प्रकार से द्रव्य बढ़ता जाता था जिससे वह घर की विशेष चहेती और अधिष्ठात्री बन चुकी थी। उसका स्वामी अजितसेन बुद्धि बल से राजा का मंत्री बना था। एक बार सरहद के राजा पर चढ़ाई करने जा रहे थे तब अजितसेन को साथ चलने की आज्ञा दी। मंत्री ने शियलवती को पूछा, 'प्रिया! मुझे राजा के साथ जाना पड़ेगा, तू अकेली घर कैसे रह सकेगी? कारण स्त्रियों का शील तो पुरुष समीप रहने से ही रहता है। जो स्त्री प्रोषितभर्तृका (जिसका पति परदेश गया हो ऐसी) हो तो वह उन्मत्त गजेन्द्र के समान कई बार स्वेच्छा से क्रीडा करती है।' पति के ऐसे वचन सूनकर नेत्र में अश्रु लाकर शियलवती ने शील की परीक्षा बतानेवाली एक पुष्प की माला स्वहस्त से गूंथ कर पति के कण्ठ में आरोपित की और बोली, 'हे स्वामी! जब तक यह माला मुरझायेगी नहीं तब तक मेरा शील अखण्ड है ऐसा मानना।' तत्पश्चात् मंत्री निश्चिंत होकर राजा के साथ बाहरगाँव गया। थोडे दिनों के बाद राजा ने मंत्री के कण्ठ में न मुरझाती हुई माला को देखकर उसके बारे में अपने आदमियों को पूछा, तब उसकी स्त्री के सतीत्व का वर्णन किया। बाद में कौतुकवश राजा ने राजसभा के बीच परस्पर हास्यवार्ता करनेवाले मंत्रियों को कहा, 'हमारे अजितसेन मंत्री की स्त्री का सतीत्व वाकई बहुत बढिया है।' यह सुनकर अन्य एक अशोक मंत्री बोल उठा, 'महाराज! उनको इनकी स्त्री ने भरमाया है। स्त्रियों में सतीत्व है ही नहीं। कहा है कि एकांत या समय मिले नहीं तब तक ही स्त्री का सतीपना है । इसलिये यदि परीक्षा करनी हो तो मुझे वहाँ भेजो।' अशोक नामक हँसी उडानेवाले मंत्री को आधा लाख द्रव्य देकर राजा ने शियलवती के पास भेजा। अशोक उज्ज्वल भेष धारण करके नगर में गया। वहाँ कोई मालन स्त्री को मिलकर कहा, 'तू शियलवती के पास जाकर कह कि कोई सौभाग्यवान पुरुष तुमसे मिलने की इच्छा रखता है।' मालन ने कहा, 'इसके लिए द्रव्य अधिक चाहिये जिन शासन के चमकते हीरे • १९७
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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