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________________ कबूल करे तो यह एक रत्न दूं और कार्य समाप्त करने के बाद यह दूसरा रत्न भी दूंगा।' ब्राह्मण ने रत्न देखकर हर्ष से कहा, 'हे पूज्य ! काम बताइये।' गुरु ने कहा, 'इस उपाश्रय के नज़दीक एक गधे का शव पड़ा हुआ है जिसके पड़े होने के कारण हमें हमारे स्वाध्याय वगैरह धर्मकार्य में विघ्न होता है, अर्थात् हम कर सकते नहीं है, इसलिये तू उसे उठाकर गाँव बाहर फेंक आ।' ब्राह्मण ने सोचा, 'इस समय अंधेरा हो चुका है जिससे मुझ वेदपारगामी को कौन पहचान सकेगा? इसलिए स्वार्थ साध लूं।' ऐसा सोचकर चाण्डाल जैसा भेष बनाकर वह शव कंधे पर चढ़ाकर, यज्ञोपवीत छुपाकर उसे रणव बाहर फेंक आया। तत्पश्चात् स्नान करके जल्दी से गुरु के पास आया और कहा, 'हे स्वामी! आपका कार्य कर आया! इसलिये आपका वचन आप पालो और दूसरा रत्न दे दो।' गुरुजी ने दूसरा रत्न भी उसे दिया। तत्पश्चात् ब्राह्मण ने सूरि को अपने प्रश्न का उत्तर पूछा, तब गुरु ने कहा, 'क्या अब भी तू तेरे प्रश्न का उत्तर नहीं समझ पाया है?' यह सूनकर लघुकर्मी और सुलभ होने तथा अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होने से अच्छी तरह सोच-विचार करने से उसकी समझ में आया, 'अहो! मैं ब्राह्मण! जिसका अर्थ 'ब्रह्मतत्त्व जानकार' होता है, तथा गायत्री का जप करनेवाला फिर भी लोभवश ऐसी निंदनीय दशा पाया। धर्मशास्त्रों में कहा है कि अत्यंत पापकर्म को उत्पन्न करनेवाला पाप का बाप यदि लोभ होवे तो अन्य पाप से क्या? यदि सत्य हो तो तप की क्या जरूरत है? यदि मन पवित्र होवें तो तीर्थ में घूमने से विशेष क्या? यदि सुजनता हो तो आप्त मनुष्य का क्या काम है? यदि महिमा हो तो अलंकार पहनने से क्या विशेषता है? यदि अच्छी विद्या होवे तो धन की क्या जरूरत? और यदि अपशय हो तो फिर मृत्यु से बढ़कर क्या है? अथवा अपयश ही मृत्यु है।' ऐसा विचार करके वह ब्राह्मण अपने घर जाकर अपनी स्त्री को कहने लगा, 'हे प्रिया! जैन साधू ने मुझे अच्छा बोध प्राप्त करवाया। लोभ पाप का बाप है - यह मुझे समझ में आया। जैन धर्म सर्व धर्म में उत्तम और लोकोत्तर है। मात्र एक लोभ नहीं जीतने पाने से सर्व धर्मकृत्य व्यर्थ है । लोभी मनुष्य सर्व प्रकार के पाप करता है।' बाद में वह ब्राह्मण गुरु के पास आया और गुरु को कहा, 'हे स्वामी! आपकी कृपा से मुझे ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी तीन रत्न प्राप्त हुए हैं' इत्यादि गुरु की प्रशंसा करके उनका अत्यंत उपकार माना। ___ इस बात का तात्पर्य यह है कि लोभ का नाश करने जैसा अन्य कोई धर्म नहीं है और लोभ के वश होने जैसा अन्य कोई पाप नहीं है।'' जिन शासन के चमकते हीरे . १९६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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