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________________ का स्पर्श करता तो वह रोना बंद कर देती थी। एक बार उसके मातापिता ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया सो क्रोध करके निकाल दिया। तब वह गिर की कोई गुफा में चला गया। कालानुसार वह जहाँ चारसौ निन्यानवे चोर रहते थे वहाँ पहुँच गया और उनके साथ धंधे में शामिल हो गया। उसकी बहिन जो द्विज घर में बड़ी हो रही थी, युवावस्था में पहुँचते ही कुलटा बनी। स्वैच्छा से घूमती हुई एक गाँव में पहुँची। वहाँ चोरों ने गाँव लूटा और उस कुलटा को पकड़कर सबकी स्त्री के रूप में रख ली। कुछ ही दिन में चोरों को हुआ कि यह बेचारी अकेली है, हम सब के साथ भोगविलास करने से जरूर थोड़े समय में मृत्यु पायेगी इसलिए कोई अन्य स्त्री ले आये तो ठीक।' ऐसे विचार से वे एक अन्य स्त्री को पकड़ लाये। तब वह कुलटा स्त्री ईर्ष्या से उसके छिद्र ढूंढने लगी और उसे अपना हिस्सेदार मानने लगी। एक बार सब चोर कोई ठिकाने चोरी करने गये थे, उस समय छल करके वह कुलटा स्त्री कुछ नया दिखाने के बहाने एक कुएँ के पास उस स्त्री को ले गयी और कुँए में देखने के लिए कहा। सरल स्त्री कुएँ में देखने लगी तो उसे धक्का मारकर कुँए में गिरा दिया। चोरों ने आकर पूछा कि 'वह स्त्री कहाँ है?' तब उसने कहा, 'मुझे क्या खबर? तुम तुम्हारी पत्नी की क्यों देखभाल नहीं करते? चोर समझ गये कि जरूर उस बेचारी को इसने इर्षा से मार डाला है।' जो ब्राह्मण चोर बना था उसने सोचा कि 'सर्वज्ञ यहाँ पधारे हैं।' इसलिये वह यहाँ आया और अपनी बहिन के दुःशील के बारे में पूछने की लज्जा आने से प्रथम मन से पूछा, बाद में मैने कहा, वाणी से पूछ - इसलिये उसने 'यासा सासा' ऐसे अक्षरों से पूछा कि क्या वह स्त्री मेरी बहिन है?' उसका उत्तर हमने 'एव मेव' कहकर बता दिया, 'वह उसकी बहिन है।' इस प्रकार रागद्वेषादिक से मूढ़ बने प्राणी इस संसार में भवोभव भटकते हैं और विविध दुःख भुगतते हैं। इस प्रकार सर्व हकीकत सुनकर वह ब्राह्मण पुरुष परम संवेग पाकर प्रभु से दीक्षा अंगीकार करके वापिस पल्ली में आया और चारसौं निन्यानवें को प्रतिबोधित करके सबको व्रत ग्रहण कराया। योग्य समय पर मृगावती ने उठ कर प्रभु को शीश झुकाते हुए कहा कि 'चण्डप्रद्योत राजा की आज्ञा पाकर मैं दीक्षा लूंगी।' तत्पश्चात् चण्डप्रद्योत के पास आकर कहा कि 'यदि आपकी संमति हो तो मैं दीक्षा लूं क्यों कि मैं इस संसार से उद्वेगित हुई हूँ और मेरा पुत्र तो आपको सौंप ही दिया है।' यह सुनकर प्रभु जिन शासन के चमकते हीरे • १९३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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