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________________ तत्पर वह सोनी नजरकैद की भाँति - कदापि गृहद्वार छोड़ता न था। और स्वजनों को भी अपने घर बुलाता नहीं था तथा स्त्रियों से अविश्वास के कारण वह स्वयं भी अन्य के घर भोजन के लिए न जा पाता था। ___ एक बार उसकी जाने की चाह नही थी फिर भी उसका कोई प्रिय मित्र अत्याग्रह करके अपने घर भोजन करने ले गया, क्योंकि वही मैत्री का आद्यलक्षण है। सोनी के बाहर जाने पर सब स्त्रियो ने सोचा कि 'हमारे घर, हमारे यौवन और हमारे जीवन को धिक्कार है कि जिसमें हम यहाँ कारागृह की भाँति बंदीवान होकर रहती हैं। हमारा पापी पति यमदूत की भाँति कदापि बाहर जाता नहीं है परंतु आज वह कहीं गया है, इसलिये ठीक हुआ है, चलो आज तो हम थोड़ी देर जो जी में आये वैसा करे।' ऐसा सोचकर सर्व स्त्रियों ने स्नान करके, अंगरांग लगाकर उत्तम पुष्पमाला आदि धारण करके सुशोभित वेष धारण किया। तत्पश्चात दर्पण लेकर वे सब अपना अपना रूप निहार रही थी, उतने में सोनी आया और यह सब देखकर बड़ा क्रोधित हुआ। उनमें से एक स्त्री को पकड़कर उसने ऐसा पीटा कि हाथी के पैर नीचे रौंदी गई कमलिनी की भाँति उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। यह देखकर दूसरी स्त्रियों ने सोचा कि 'इस तरह हमें भी यह दुष्ट मार डालेगा, इसलिये हम इकट्ठी होकर उसे ही मार डाले। ऐसे सोचकर उन सब ने निःशंक होकर चारसौ निन्यानवें दर्पण उस पर फेंके। सोनी तत्काल मृत्यु पा गया। इसके बाद सर्व स्त्रियाँ पश्चात्ताप करती हुई चितावत गृह को जलाकर भीतर ही रहकर जल मरी । पश्चात्ताप के योग से अकाम निर्जरा होने से वे चारसौं निन्यानवें स्त्रियाँ मृत्यु पाकर पुरुषरूप में उत्पन्न हुई। दुर्दैव योग से वे सब इकठ्ठी मिलकर कोई अरण्य में किल्ला बनाकर रहते और चोरी करने का धंधा करने लगे थे। वह सोनी मृत्यु पाकर तिर्यंच गति में उत्पन्न हुआ। उसकी एक पली जिसने प्रथम मृत्यु पाई थी वह भी तिर्यंच में उत्पन्न हुई और दूसरे भव भव में ब्राह्मण कुल में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुई। उसकी पाँच वर्ष की आयु होते ही वह सोनी भी ब्राह्मण के घर कन्या के रूप में अवतरित हुआ। बड़ा भाई अपनी बहिन का ठीक तरह से पालन करता था तथापि अति दुष्टता से वह रोया करती थी। एक बार वर द्विज पुत्र ने उसके उदर को सहलाते हुए अचानक उसके गुह्यस्थान पर स्पर्श किया, तो वह रोती बंद हो गयी। जिससे उसके रुदन को बंद करने का उपाय समझकर जब जब वह रोती तब उसके गुह्यस्थान जिन शासन के चमकते हीरे • १९२
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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