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________________ बनवा दे।' गरजवान को अक्ल नहीं होती है, जिससे चण्डप्रद्योत ने वैसा करना स्वीकारा और कुछ समय में कौशांबी के चारोंओर मजबूत किल्ला बनवा दिया। तत्पश्चात् मृगावती ने फिर से दूत भेजा और कहलवाया, 'हे प्रद्योत राजा! आप धन, धान्य और ईंधन आदि से कौशांबी नगरी को भरपूर कर दो।' चण्डप्रद्योत ने वह कार्य भी शीघ्र करा दिया; आशा-पाश' से बंधा पुरुष क्या नहीं करता?' बुद्धिवान मृगावतीने जाना कि, 'अब नगरी विरोध करने योग्य है जिससे उसने दरवाजे बंद किये और किल्ले पर सैनिकों को चढ़वाया। चण्डप्रद्योत राजा फल से भ्रष्ट हुए कपि की तरह अत्यंत बिलख कर नगरी को घेरा डालकर पड़ा रहा। एक बार मृगावती को वैराग्य हुआ, 'जहाँ तक श्री वीरप्रभु विचर रहे हैं, वहाँ तक मैं उनसे दीक्षा लूँ।' उसका ऐसा संकल्प ज्ञान से जानकर श्री वीरप्रभु सुरअसुर के परिवार के साथ वहाँ पधारे । प्रभु के बाहर पधारने का सुनकर, मृगावती पुर के द्वार खोलकर निर्भिकता से बड़ी समृद्धि के साथ प्रभु के पास पधारी। प्रभु को वन्दना करके योग्य स्थान पर बैठी। चण्डप्रद्योत भी प्रभु का भक्त होने से वहाँ आकर बैर छोड़कर बैठा और सब वीर प्रभु की देशना सुनने लगे। 'यहाँ सर्वज्ञ पधारे है' - ऐसा जानकर एक धनुष्यधारी पुरुष प्रभु के पास आया और नज़दीक खड़ा रहकर प्रभु को मन से ही अपना संशय पूछा । प्रभु बोले : 'अरे भद्र ! तेरा संशय वचन द्वारा कह बता कि जिससे ये अन्य भव्य प्राणी प्रतिबोध पाये।' प्रभु ने इस प्रकार कहा तो भी वह लज्जावश होकर स्पष्ट बोलने के लिये असमर्थ था जिससे वह थोड़े अक्षरों में बोला, 'हे स्वामी! यासा, सासा।' प्रभु ने भी छोटा ही उत्तर दिया, एव मेव।' यह सुनकर गौतम स्वामी ने पूछा, 'हे भगवंत! 'यासा, सासा' इस वचन का क्या अर्थ है?' प्रभु बोले, 'इस भरत क्षेत्र की चम्पानगरी में पूर्व एक स्त्रीलंपट सुवर्णकार था। वह पृथ्वी पर घूमता था और जो जो रूपवती कन्याएँ देखता उन्हें पांचसौं - पांचसौं सुवर्णमुद्राएँ देकर उनसे ब्याह करता था। इसी प्रकार क्रमानुसार वह पांचसौं स्त्रीयों से ब्याहा और प्रत्येक स्त्री को उसने सर्व अंगों के आभूषण करा दिये थे जिससे बाद में जिस स्त्री की बारी आती तब वह स्त्री- स्नान, अंगराग वगैरह करके सर्व आभूषण पहिनकर उसके साथ क्रीडा करने के लिये सज्ज बनती थी। उसके सिवा दूसरी कोई भी स्त्री अपने भेष में कुछ भी परिवर्तन करती तो उसका तिरस्कार करके मार-पीट करता था। अपनी स्त्रियों की अति इर्ष्यालुता से उनके रक्षण में जिन शासन के चमकते हीरे • १९१
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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