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________________ ऐसा विचार करके चण्डप्रद्योत ने अपने दूत को समझाकर शतानिक राजा के पास भेजा। उस दूत ने शतानिक राजा के पास जाकर कहा, 'हे शतानिक राजा ! चण्डप्रद्योत राजा आपको आज्ञा देते है कि तुमने दैवयोग से मृगावती देवी को प्राप्त किया है परंतु वह स्त्रीरत्न मेरे योग्य है, तू तो नाममात्र है; इसलिये यदि राज्य और प्राण प्यारे हो तो उसे शीघ्र यहाँ भेद दे।' दूत के ऐसे वचन सूनकर शतानिक बोला, 'अरे अधम दूत! तेरे मुख से तू ऐसे अनाचार की बात बोल रहा है परंतु जा, दूतपने कारण आज मैं तुझे मारता नहीं हूँ, जो स्त्री मेरे आधीन है उसके लिए भी तेरे पापी राजा का ऐसा आचार है तो अपनी स्वाधीन प्रजा पर वह कैसा जुल्म करता होगा?' इस प्रकार से कहकर शतानिक ने निर्भिकतापूर्वक दूत को तिरस्कृत करके निकाल दिया। दूत ने अवंति आकर यह बात चम्ड प्रद्योत को कही। वह सुनकर चण्डप्रद्योत को बड़ा क्रोध चढ़ा। जिससे मर्यादारहित सैन्य लेकर कौशांबी तरफ चला। चण्डप्रद्योत को आता सुनकर शतानिक राजा क्षोभ व अतिसार पीड़ित हो जाने कारण तत्काल मृत्यु पा गया। देवी मृगावती ने सोचा, ‘मेरे पति तो मृत्यु पा गये । उदयनकुमार अभी बालक है।' बलवान को अनुसरना' ऐसी नीति है। परंतु स्त्रीलंपट राजा के सम्बन्ध में ऐसा करने से मुझे कलंक लगेगा, सो उसके साथ कपट करना ही योग्य है, इस कारण अब तो यहीं रहकर अनुकूल संदेशा भेजकर उसे लालायीत करके योग्य समय आये तब तक काल निर्गमन कर लूं।' ऐसा विचार करके मृगावती ने एक दूत को समझाकर चण्डप्रद्योत के पास भेजा । वह दूत छावनी में रहे चण्डप्रद्योत के पास जाकर बोला, 'देवी मृगावती ने कहलवाया है कि मेरे पति शतानिक राजा स्वर्ग पधारे हैं, अब मुझे आपकी ही शरण है, परंतु मेरा पुत्र अभी बलरहित बालक है, इसलिये यदि मैं अभी उसे छोड़ दूँ तो पिता की विपत्ति से हुए उग्र शोकावेग की तरह शत्रु राजा भी उसका पराभव करेंगे। मृगावती की ऐसी बिनती सुनकर चण्डप्रद्योत बड़ा हर्ष पाया और बोला, 'मैं रक्षक, फिर भी मृगावती के पुत्र का पराभव करने के लिये कौन समर्थ है?' दूत बोला, 'देवी ने ऐसा भी ही कहा है कि प्रद्योत राजा स्वामी, तो मेरे पुत्र का पराभव करने के लिए कौन समर्थ है ?" परंतु आप पूज्य महाराजा तो बड़े दूर रहते हो और शत्रु राज़ा तो निकट रहनेवाले हैं, इससे 'सर्प तकिये पर और औषधियाँ हिमालय पर' - ऐसा है तो यहाँ का हित चाहते हो तो उज्जयनी नगरी से इंटे लाकर कौशांबी के चारों ओर मजबूत किल्ला जिन शासन के चमकते हीरे • १९०
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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