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________________ ७४ • पेथड शाह - कांकरेज के नज़दीक एक गाँव में पेथड नामक एक ओसवाल जाति का भला वणिक रहता था। उसे पद्मिनी नामक पत्नी थी । उसे डंकाण नामक एक पुत्र भी था । दरिद्रावस्था के कारण वह बालक दुखी रहता था। धर्मघोष नामक आचार्य वहाँ पधारे तो उनसे पाँचवा परिग्रह परिमाण व्रत अंगीकार करते हुए पेथड ने 'एक हजार के उपरांत द्रव्य मुझे रखना नहीं' ऐसा कहा । इसलिये आचार्य महाराज ने कहा, 'ज्ञान और चेष्टा से आपका भाग्य बहुत अच्छा दिखाई दे रहा है, सो हे श्रावक इतने द्रव्य से आपका क्या होगा : 'भगवन् ! इस समय तो मेरे पास कुछ भी द्रव्य नहीं है, परंतु आपके कहे अनुसार यदि आगे मिल जायेगा तो पाँच लाख से उपर का द्रव्य मैं धर्म मार्ग में खर्च डालूंगा।' उसकी दृढ़ता देखकर गुरु ने उसे उस प्रकार का पच्चखान कराया, तत्पश्चात् दरिद्रावस्था का दुख वृद्धि पाया देखकर पुत्र को छबड़े में सिर पर उठाकर मालवा तरफ चला । : कालानुसार उस देश के मुख्य गाँव में घूसते ही सर्प को उसका मार्ग काटते देखा इसलिये वह अटक कर खड़ा रह गया। उस समय वहाँ एक शुकुनविद्व वहाँ आ पहुँचा। उसने पेथड को पूछा, 'क्यों खड़ा रह गया?' तब उसने मार्ग काटते हुए सर्प को दिखाया । शुकुनविद्व ने सर्प की ओर दृष्टि करके देखा तो उसके मस्तिष्क पर काली देवी (चीड़िया) बैठी हुई देखी । वह तत्काल बोला, 'यदि तू अटके बगैर चल दिया होता तो तुझे मालवा का राज्य मिल जाता, यद्यपि इस शुकुन को मान देकर इसी समय प्रवेश कर। इस शुकुन से तू महाधनवान हो जाएगा।' शुकुनशास्त्र में कहा है कि 'यदि गाँव से निकलते समय बाँयी ओर स्वर होवे, सर्प दाहिनी ओर होवे और बाँयी ओर लोमड़ी बोले तो स्त्री स्वामी को कहती है, हे स्वामीनाथ ! साथ में कुछ पाथेय मत लेना, यह शुकुन ही पाथेय दे देगे ।' अपने को हुए शुकुन का ऐसा फल जानकर पेथड़ गाँव में दाखिल जिन शासन के चमकते हीरे • १८५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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