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जब राजा बेहोश हो गया। वहाँ तब रानी ने उसे गंगा के प्रवाह में बहता छोड़ दिया। तत्पश्चात् रानी सुकुमालिका उस पंगु की स्वेच्छा से गान करवाती। कंधे पर बिठाकर भीख माँगती हुई घूमने लगी। यह देखकर लोग उसे पूछने लगे कि, 'यह कौन है?' तब वह कहती, 'मेरे माता-पिता ने ऐसा पति देखा है, इसलिये स्कंध पर उसका वहन करती हूँ।'
वहाँ जितशत्रु को गंगा में बहते हुए होश आ गया, एक लकड़ी का तख्ता हाथ लगा। उसके सहारे वह तैर कर बाहर निकला एवं नदी तट पर एक वृक्ष के नीचे जाकर सो गया। उस समय समीप के नगर के राजा की मृत्यु हो जाने से उसके मंत्रियों ने पंचदिव्य किये, वे उस वृक्ष के पास आकर खड़े रहे तथा मंत्रियों ने राजा को जाग्रत करके राज्यगद्दी पर बिठाया। दैव योग से वह सुकुमालिका पंगु को लेकर उस नगरी में आ पहुंची। वे दोनों सतीपने और गीतमाधुर्य से उस नगरी में विख्यात हुए। उनकी प्रसिद्धि सुनकर राजा ने उनको अपने पास बुलवाया। दोनों को देखकर राजा ने पहचान लिया। राजा बोला, 'हे बाई! ऐसे बीभत्स पंगु को उठाकर तू क्यों घूमती है?' वह बोली, 'मातापिता ने जैसा पति ढूंढा हो उसे सतियों को इन्द्र जैसा मानना चाहिये।' यह सुनकर राजा बोला, 'हे पतिव्रता! तूझे धन्य है। पति के बाहु का रुधिर पिया और जांघ का मांस खाया तो भी अंत में गंगा के प्रवाह में छोड़ दिया है। अहो! कैसा तेरा सतीपना!' इस प्रकार कहकर उस न्यायी राजा ने स्त्री को अवद्य मानकर अपने देश की सीमा से बाहर निकलवा दिया और इस प्रकार प्रत्यक्ष स्त्रीचरित्र देखकर उसने सर्व स्त्रियों का त्याग करने रूप महाव्रत लिया।
सुकुमालिका का चरित्र देखकर जितशत्रु राजा विषयसुख से विरक्त बना और काम-क्रोधादि शत्रुओं पर जय पाकर अपना जितशत्रु नाम सार्थक किया।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ! तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय। तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय ॥२६॥
जिन शासन के चमकते हीरे • १८४