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है, इसलिये उसे हणना योग्य नहीं है। इसके बाद दोनों अपने स्थान पर चले गये।
तत्पश्चात् उसके साथ पाणिग्रहण करने की इच्छा न थी यद्यपि उसके पिता वगैरह ने ज्यों त्यों करके समझाकर उसका ब्याह कराया। परंतु चौरी मण्डप में पवनंजय कुमार ने राग से उसके मुख के सामने भी देखा नहीं और शादी के बाद भी उसे बुलाया नहीं। इससे अंजना निरंतर दुःख की स्थिति का अनुभव करने लगी। बड़े उपायों के बाद भी उसे भरतार का सुख प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। ___इस अवसर पर प्रतिवासुदेव रावण विद्याधर वरुण को साधने गया था। वहाँ उसका एक दूत प्रहलादन राजा को बुलाने के लिये आया। प्रह्लादन राजा को वहाँ जाने के लिए तैयार होते देखकर पवनंजय ने उनको रोककर, उनकी आशिष लेकर, दृष्टिमार्ग में खड़ी अंजना के सामने देखे बगैर वहाँ से चल पडा। प्रयाण मार्ग में बीच में मानसरोवर आया। वहा उसने पडाव किया, वहाँ कमलवन विकसित हुआ देखकर उसने आनंद पाया। रात्रि को चक्रवाक पक्षी की स्त्री को करुण स्वर में विलाप करती हुई उसने सूनी।वह सूचित कर रही थी कि पति के वियोग से आतुर ऐसी यह चक्रवाकी रात्रि में आती है, जाती है, दुबारा आती है। कमल के अंकुर को खींचती है, पंख फडफड़ाती है, उन्माद करती है, घूमती है और मंदमंद बोलती है। इस प्रकार के वचन सुनकर अपने मित्र ऋषभदत्त को उसका कारण पूछा, इससे वह बोला, 'मित्र! दैवयोग से इन पक्षियों का वियोग रात्रि को ही होता है। यह पक्षिणी इस प्रकार पुकार मचाती हुई मृतप्रायःहो जायेगी परंतु प्रभात होते ही उसका पति उसे मिलेगा तब वह फिर से प्रफुल्ल व ताजगीभरी बन जायेगी।' । ___उस समय अंजना का पूर्व बांधा हुआ भोगांतराय कर्म क्षय पा चुका था, इसलिये पवनंजय के मन में तत्काल ऐसा विचार आया, 'अरे! मेरी पत्नी अंजना को छोड़े हुए मुझे बारह वर्ष बीत चुके हैं, तो उस बेचारी के ये वर्ष किस प्रकार व्यतीत हुए होंगे? इसलिये यहाँ से चलूं और घर वापिस जाकर एक बार मिल आऊँ। ऐसा सोचकर कुमार रात्रि को गुप्तरूप से घर आया और उसी दिन ऋतुस्नाता हुई अंजना का उपभोग प्रेमपूर्वक किया। बाद में अपने नाम से अंकित मुद्रिका निशानी के लिए अंजना को दी और अपने कटक में पुनः लौट गया। उसके जाने पर क्रमानुसार अंजना को गर्भ ठहर गया। उदरवृद्धि होते देखकर उसकी सास ने कलंकिनी मानकर कठोर वचन कहें। अंजना ने अपने पति के नाम से अंकित मुद्रिका बताई फिर भी वह कलंक मिटा नहीं, और एक दासी के साथ उसे गृह
जिन शासन के चमकते हीरे • १८०