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हंसराजा
राजपुरी में हंस नामक एक राजा था। एक बार वह उपवन की शोभा देखने नगर के बाहर गया। वहाँ एक मुनि उसको देखने आये। राजा उनके पास बैठा, इससे मुनि ने देशना दी।
'सत्य यश का मूल है, सत्य विश्वास का कारण है, सत्य स्वर्ग का द्वार है और सत्य सिद्धि का सोपान (सीढ़ी) है । और जो असत्य बोलते हैं वे भवांतर से दुर्गंधी मुखवाले, अनिष्ट वचन बोलनेवाले, कठोरभाषी, बहरे और गूंगे होते हैं। वे सर्व असत्यवचन के परिणाम है।' इस धर्मदेशना सुनकर हंसराजा ने सत्यव्रत ग्रहण किया। ___ एक बार हंसराजा अल्प परिवार लेकर रत्नशिखरगिरि पर चैत्री महोत्सव के प्रसंग पर श्री आदिश्वर प्रभु को वंदन करने निकला। आधा मार्ग गुजरने के बाद किसी सेवक ने तत्काल वहाँ पहुँचक कहा, 'हे देव! आप यात्रा करने निकले कि तुरंत सीमा पर के राजा ने आकार आपके नगर पर जबरदस्ती से कब्जा जमा लिया है। आपको जैसा जचे वैसा कीजिये।' साथ रहे सुभटों ने भी राजा को वापिस लौटने के लिए कहा। राजा ने कहा, 'प्राणी को पूर्व कर्म वश संपत्ति और विपत्ति की प्राप्ति होती ही रहती है। इस कारण जो संपत्ति में हर्ष और विपत्ति में खेद पाते हैं वे सचमुच मूढ हैं। ऐसे अवसर पर सद्भाग्य से प्राप्त जिन यात्रा महोत्सव को छोड़कर भाग्य से लभ्य ऐसे राज्य के लिए दौड़ना योग्य नहीं है। इसके अलावा कहा गया है कि 'जिसके पास समकित रूप अमूल्य धन है, धनहीन होने पर भी उसे धनवान समझना । क्योंकि धन तो एक भव में ही सुख देता है परंतु समकित तो भवोभव में अनंत सुखदायक है।' इस प्रकार कहकर राजा वापिस न लौटकर आगे चला।परंतु शत्रु आने के समाचार सुनकर एक छत्रधारक के सिवा दूसरे सर्व परिवार अपने घर की खबर लेने के लिए वापिस लौट गये। राजा अपने अलंकार छिपाकर, छत्रधारक के वस्त्र पहिनकर आगे चला। वहाँ किसी राजा के देखते ही कोई एक मृग पास की लताकुंज में घूस गया। उसके पीछे तुरंत ही धनुष पर बाण चढ़ाकर कोई भील आया और राजा को पूछा : 'अरे ! मृग किस ओर गया? वह बता।' यह सुनकर राजा ने मन में सोचा कि जो प्राणियों का अहित होता हो तो वह सत्य हो तो भी कहना नहीं चाहिये और ऐसा प्रसंग आये तब पूछनेवाले को प्रपंचभरा जवाब सद्बुद्धिवान् पुरुष को देना चाहिये।' ऐसा चिंतन करके राजा बोला, 'अरे भाई ! मैं मार्गभ्रष्ट हुआ हूँ।' भील ने दुबारा पूछा तब राजा ने कहा, 'मैं हंस हूँ।' इस प्रकार के राजा के वचन सुनकर वह भील क्रोध से बोला, 'अरे विकल ! ऐसे उलटे उतर क्यों दे रहा है ?' तब राजा ने कहा, 'अब
जिन शासन के चमकते हीरे . १६८