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________________ उस प्रकार मांस में रहे कई कृमि बाहर नीकले। पूर्व की तरह फिरसे रत्नकंबल का आच्छादन किया सो कृमि रत्नकम्बल पर तैरने लगे और उनका पूर्व की तरह ही गोमृतक में संक्रान्त किया। अहो ! कैसा उस बैद्य का बुद्धिकौशल्य ! जिस प्रकार मेघ ग्रीष्मऋतु से पीड़ित हुए हाथी को शांत करे उस प्रकार जीवानंद ने गोशीर्ष चन्दन के रस की धारा से मुनि को शांत किया। थोड़ी देर के बाद तीसरी बाद अभ्यंग किया, इससे अस्थिगत कृमि रहे थे वे भी निकले; उन कृमियों को भी पूर्व की तरह रत्नकंबल में लेकर गोमृतक में डाले। अधम को अधम स्थान ही चाहिये। तत्पश्चात् उस बैद्य शिरोमणि ने परमभक्तिपूर्वक जिस प्रकार देव को विलेपन करा जाय उस प्रकार गोशीर्ष चन्दन के रस से मुनि को विलेपन किया। इस प्रकार औषध करने से मुनि नीरोगी और नवीन कांतिवाले बने और मांजी हुई सुवर्ण की प्रतिमा जिस प्रकार शोभायमान हो उस प्रकार शोभायमान लगे। भक्ति में दक्ष उन मित्रों ने मुनि से क्षमापना माँगी। मुनि भी वहाँ से विहार करके दूसरे स्थान पर चले गये क्योंकि साधु-महात्मा एक जगह पर स्थायी नहीं रहते। बाकी बचे गोशीर्ष और रत्नकंबल को बेचकर उन बुद्धिमंतों ने सुवर्ण खरीदा। उस सुवर्ण में अपना सुवर्ण भी जोडा और उन्होंने मेरु शिखर जैसा अहंत चैत्य बनवाया। जिन प्रतिमा की पूजा एवं गुरु की उपासना में तत्पर उन सब ने कुछ काल व्यतीत किया और समय बीतने पर छ: मित्रों को संवेग (वैराग्य) प्राप्त हुआ, इससे कोई मुनि महाराज के पास जाकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और नगर, गाँव और वन में नियतकाल न रहते, वे विहार करने लगे। उपवास, छठ्ठ एवं अट्ठम वगैरह तपरूपी शरण से अपने चारित्र रत्न को अत्यंत निर्मल किया। तत्पश्चात् उन्होंने द्रव्य से और भाव से संलेखना करके कर्मरूपी पर्वत का नाश करने में वज्र जैसा अनशन व्रत ग्रहण किया। समाधि को भजनेवाले उन्होंने पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपनी देह छोडी और अच्युत नामक बारहवें देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव हुए। वहाँ से बाईस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करके लवण समुद्र के नज़दीक पुंरीराकिणि नगरी में वज्रसेन राजा की धारणी नामक रानी की कोख से वे पाँच पुत्र के रूप में क्रमानुसार उत्पन्न हुए। उनमें जीवानंद बैद्य का जीव वज्रनाभ नामक प्रथम पुत्र हुआ।समय पकने पर सब भाईयों ने दीक्षा लेकर कई लब्धियाँ प्राप्त की। अंत में वज्रनाभ स्वामी ने बीस स्थानक की आराधना से तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म दृढता से उपार्जन किया और खड्ग की धारा जैसी प्रवज्या का चौदह लाख पूर्वतक पालन करके पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर सर्वार्थ सिद्धि नामक पाँचवे अनुत्तर विमान में तीस सागरोपम के आयुष्यवाले देवता बने। उसी वज्रनाभ का जीव प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के नाम से मरूदेवी माता की कोख से अवतरित हुए। जिन शासन के चमकते हीरे . १६७
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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