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________________ में गये और मुनि स्वस्थान पधारे। उन पांचों मित्रों ने बाजार में किसी वृद्ध व्यापारी के पास जाकर कहा, 'हमें गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल की जरूर है। जो भी मूल्य हो वह लेकर हमें दो।' उस व्यापारी ने कहा, 'ये हरेक चीज का मूल्य एक लाख सुवर्णमुद्राएँ हैं, देकर ले जाओ, परंतु इससे पूर्व उसका तुम्हें क्या प्रयोजन है वह कहो।' उन्होंने कहा : 'जो मूल्य हो वह लेलो और दोनों चीजें हमें दो। उससे हमें एक महात्मा के रोग की चिकित्सा करनी है। ऐसा सुनकर सेठ की आँखे आश्चर्य से फैल गई, रोमांच से उनके हृदय ने आनंद जताया और चित्त में वे इस प्रकार से सोचने लगे, 'अहो ! उन्माद, प्रमाद और कामदेव से अधिक मदवाला इन सबका यौवन कहाँ? और वयोवृद्ध को उचित ऐसी विवेकशील उनकीमतिकहाँ? मेरे जैसे जरावस्था से जर्जर कायावाले मनुष्य को करनेलायक शुभकार्य ये सर्व करते हैं और दमन करने योग्य बोझा वे ढो रहें हैं।' ऐसा सोचकर वृद्ध व्यापारी ने कहा : हे भद्रे ! यह गोशीर्षचंदनवरत्नकम्बल ले जाओ।आपका कल्याण हो !मूल्य की कोई जरूरत नहीं है ।आपने सहोदर के भाँति धर्मकार्य में भागीदार किया है इसलिये धर्मरूपी अक्षय मूल्य मुझे मिला है। इस प्रकार से औषध सामग्री ग्रहण करके मित्र जीवानंद के साथ मुनि के पास गये। वे मुनि महाराजा एक वटवृक्ष के नीचे वृक्ष के पाद हो उस प्रकार निश्चल होकर कायोत्सर्ग रहे थे। उनको नमस्कार करके वे बोले, 'हे भगवन ! आज चिकित्सा कार्य से हम आपके धर्मकार्य में विघ्न करेंगे: आप आज्ञा करें और पुण्य से हमें अनुग्रहति करें।' मुनि ने चिकित्सा करने की मूक सम्मति दी। वे शीघ्र ही मरी हुई गाय का शव लायेः (गोमृतक) क्योंकि सुबैद्य कभी विपरीत (पापयुक्त) चिकित्सा नहीं करते। उन्होंने मुनि के हरेक अंग में लक्षपाक तैल से मर्दन किया; नहर का जल जिस प्रकार उद्यान में व्याप्त हो जाता है - वैसे मुनि की हरेक नस में तैल व्याप्त हो गया।बड़े उष्ण वीर्यवान् उस तैल से मुनिसंज्ञारहित हो गये। उग्र व्याधि मिटाने के लिये उग्र औषध ही चाहिये। जिस प्रकार जल बिल में डालने से चींटियाँ बाहर निकल आती हैं उस प्रकार तैल से व्याकुल कृमि मुनि के कलेवर में से बाहर निकलने लगे। जिस प्रकार चन्द्र अपनी चांदनी से आकाश को आच्छादित करते हैं उस प्रकार जीवानंद ने रत्नकंबल से मुनि को आच्छादित किया ।ग्रीष्मऋतु के मध्याह्न के समय तपी हुई मछलियाँ काई में लीन हो जाती है वैसे उस रत्नकंबल में शीतलता होने से सर्व कृमि उसमें लीन हो गये। तत्पश्चात् रत्नकंबल को हिलाये बिना धीरे से उठाकर सर्व कृमिओं को गाय के मृतक पर रखे। सत्पुरुष सर्व स्थानों पर दयायुक्त होते हैं । इसके बाद जीवानंद ने अमृत रस समान प्रामी को जीवनदान देनेवाले गोशीर्ष चन्दन के विलेपन से मुनि की आश्वासना की।इस प्रकार प्रथम त्वचागत कृमि नीकले, इसलिये फिर से उन्होंने तैलाभ्यंगन किया और उदान वायु से जिस प्रकार रस निकले जिन शासन के चमकते हीरे • १६६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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