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________________ ६७ -जीवानंद वैद्य जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नगर में सुविधि बैद्य के घर जीवानंद नामक पुत्र था। उस नगर में उसी अरसे में चार बालक उत्पन्न हुए। उनमें प्रथम इशानचंद्र राजा की कनकावती नामक स्त्री से महीधर नामक पुत्र हुआ।दूसरा सुनाशीर नामक मंत्री की लक्ष्मी नामक स्त्री से लक्ष्मीपुत्र के समान सुबुद्धि नामक पुत्र हुआ। तीसरा सागरदत्त नामक सार्थवाहकी अभयमती नामक स्त्री से पूर्णभद्र नामक पुत्र हुआ और चौथा धनश्रेष्ठि की शीलमती नामक स्त्री से शीलपूंज'समान गुणाकर नामक पुत्र हुआ। उसके सिवा उसी नगर में ईश्वरदत्त सेठ के यहाँ केशव नामक पुत्र हुआ। ये छ: मित्र के रूप में खेलते खेलते बड़े हुए। उनमें से सुविधि बैद्य का पुत्र जीवानंद औषधि और रसवीर्य के विपाक से अपने पिता से पायी हुई विद्या के प्रताप से अष्टांग आयुर्वेद जानकार बना ।हस्ती में ऐरावत और नवग्रह में सूर्य की तरह प्राज्ञ और निर्दोष विद्यावाला सर्व बैद्यो में अग्रणी बना। वे छः मित्र मानो सहोदर हो वैसे निरंतर साथ खेलते थे और परस्पर एक दूसरे के घर इकट्ठे होते थे। एक बार बैद्यपुत्र जीवानंद के घर वे बैठे थे, उतने में एक गुणाकर नामक साधू गोचरी के लिए आये।महातपस्या करते होने से उनका शरीर कृश हो गया था। बैमौके व अपथ्य भोजन करने से उन्हें कृमिकुष्ठ व्याधि हुआ था।सर्वांग में कृमिकृष्ठ व्याप्त हो गया था; फिर भी वे महात्मा कोई बार भी औषध की याचना न करते थे। मुक्ति के साधकों को काया पर ममत्व नहीं होता। उन साधू को छठ्ठ के पारणे पर घर घर घूमकर आते हुए देखा। उस समय जगत के अद्वितीय बैद्य जीवानंद को महीधर कुमार ने कुछ व्यंगपूर्वक कहा, 'आपको व्याधि का ज्ञान है, औषध का विज्ञान है और चिकित्सा में भी कुशल हो; परंतु आपमें एक दया नहीं है । वेश्या जिस प्रकार द्रव्य के बगैर सामने देखती नहीं है, उस प्रकार आप पीडितजनों के सामने देखते भी नहीं है, लेकिन विवेकी को एकांत अर्थलुब्ध नहीं होना चाहिये। किसी समय पर धर्म ग्रहण करके भी चिकित्सा करनी चाहिये। निदान एवं चिकित्सा में आपकी कुशलता है । आपको धिक्कार है कि ऐसे रोगी मुनि की भी आप उपेक्षा करते हो?' ऐसा सुनकर विज्ञान रत्नाकर जीवानंद स्वामी ने कहा : 'आपने मुझे स्मरण कराया यह बहुत अच्छा हुआ।येमहामुनि अवश्य चिकित्सा करने लायक है, परंतु इस समय मेरे पास औषध सामग्री नहीं है, यह विडम्बना है, उस व्याधि के लायक औषध लक्षपाक तैल मेरे पास है, परंतु गोशीर्ष चंदन और रत्नकंबल नहीं है, वह आपला दो।"यह दोनों चीज हम ला देंगे।'ऐसा कहकर वे पांचों बाजार जिन शासन के चमकते हीरे . १६५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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