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वस्तु करना प्रारंभ किया तो हो गयी' ऐसा न कहा जायेगा। हो जाने के बाद हो गयी' कहा जायेगा। जो घट आदि कार्य है वे क्रया काल के अंत में ही हुए दीखते हैं। मिट्टी के पिंड वगैरह काल में घटादि कार्य हुआ यूं न कहा जायेगा. यह बात बालक से लेकर सर्वजन प्रसिद्ध है ही। जो कार्य है वही क्रिया बाद में ही होती है।' ऐसा विचार करके अपने शिष्यों को स्वकल्पित आशय कहा। तब अपने गच्छ में रहे श्रुतंस्थविरों ने कहा, 'हे आचार्य ! भगवंत का वचन आपकी समझ में बराबर आया नहीं है जिससे आपको असत्य लगता है, पर यह वाक्य प्रत्यक्ष विरद्ध नहीं है। एक घटादि कार्य में अवांतर (बीच के भाग में) कारण और कार्य इतने अधिक होते हैं कि उनकी संख्या भी नापी नहीं जा सकती। मिट्टी लानी, मर्दन करना, पिंड बांधना, चाक पर चढ़ाना, दण्ड से चक्र का भ्रमण कराना वगैरह जो कारण हैं, वह कार्य बनने के बीच में देखे जाते हैं, वह घट निवर्तन क्रिया काल है ऐसा आपका अभिप्राय है लेकिन वह अयुक्त है। उपर के जो जो कारण हैं वे सर्व घटरूप कार्य के ही कारण है, वे जहाँ से शुरू हुए वहां से उन्हें कार्य बनने पर अंत में घटरूप कार्य हो सकते हैं। बीच के कारण बने बगैर अंत का घट रूप कार्य नहीं बन पाता। बीच के जो भिन्न भिन्न कार्य होते हैं वे हुए बगैर घटरूप कार्य की सिद्धि हो ही नहीं पाती। घट तो अंतिम काल पर होगा लेकिन बीच के जो कार्य हुए वे भी घटकार्य गिने जायेंगे।
यहाँ अर्ध स्थान में संथारा तो हुआ ही, बाकी अब उसके उपर वस्त्र आच्छादन करना वगैरह कार्य बाकी हैं, वह कार्य संथारे की पूर्णता का है। वह करने से पूर्व भी संथारा बिछाया नहीं है - ऐसा कोई कह नहीं सकता, सो भगवंत का यह वाक्य विशिष्ट प्रक्रिया की अपेक्षावाला है - यूं समझना। केवलज्ञान के आलोक से त्रैलोक्य की वस्तुओं के ज्ञाता - ऐसे सर्वज्ञ श्री वीरप्रभु का कथन ही हमारे लिए प्रमाण है। उनके सामने तुम्हारी सब युक्तियाँ मिथ्या हैं। हे जमाली ! तुमने कहा कि, 'महान पुरुषों को भी स्खलना होती है' वह तुम्हारा वचन मत्त, प्रमत्त और उन्मत्तता जैसा है। 'जो करा जा रहा हो उसे करा हुआ' कहना ऐसा सर्वज्ञ का भाषित सही ही है। नहीं तो उनके वचन से तुमने राज्य छोड़कर दीक्षा किसलिए ली ? इन महात्मा के निर्दोष वचनों को दूषित करते हुए तुम्हें लाज नहीं आती? और ऐसे स्वकृत कर्मों से तुम क्यों भवसागर में निमग्न होते हो ? सो आप वीरप्रभु के पास जाकर
जिन शासन के चमकते हीरे • १५६