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________________ इस बात का प्रायश्चित ग्रहण करिए, आपका तप और जन्म निरर्थक गँवाओ मत ।' जो प्राणी अरिहंत के एक अक्षर पर श्रद्धा नहीं रखते, वे प्राणी मिथ्यात्व को पाकर भवपरम्परा में भटकते हैं । इस प्रकार स्थविर मुनियों ने जमालि को बड़ा समझाया फिर भी अपना कुमत छोड़ा नहीं, मात्र मौन धर लिया । इस कारण कुमतिधारी जमालि को छोड़कर कई स्थविर मुनि तो शीघ्र ही प्रभु के पास चले गये और कई उसके पास रहे। प्रियदर्शना ने परिवार सहित स्त्रीजाति को सुलभ ऐसे मोह (अज्ञान) से और पूर्व के स्नेह से जमालि के पक्ष का स्वीकार किया। जमालि उन्मत होकर अन्य मनुष्यों को भी अपना मत ग्रहण कराने लगा और वे भी कुमत को फैलाने लगे। जिनेन्द्र के वचन की हँसी उडाता और 'मैं सर्वज्ञ हूँ ।' ऐसे कहते हुए जमालि परिवार सहित विहार करने लगा । प्रियदर्शना एक बार ढंक नामक कुंभकार श्रावक के घर ठहरी, उसे अपने मत में खींचने के लिए बहकाने लगी। परंतु उसने जान लिया कि, इसको वाकई मिथ्यात्व की वासना हो गई है, उसने उसको समझाने की बुद्धि से कहा कि ऐसी बारीक बातों में मैं कुछ नहीं समझता।' एक बार अपने आँवे (भठ्ठी) में से घड़े को निकालते - रखते समय कुम्हार से प्रियदर्शना के वस्त्र के एक छोर पर अंगारा गिरा जिससे उसकी सिंघाडी पर एक छेद हो गया। इस कारण वह बोल पड़ी, 'हे श्रावक ! तूने मेरी सिंघाडी जला डाली ।' कुम्हार बोला, 'भद्रे ! आप यह क्या बोल रही हो ? यह तो भगवंत का वचन है । आप इसे कहाँ मानती हो ? यह आपकी सिंघाडी पूरी जल गई होती तो आप कह सकती थी कि सिंघाडी जल गई, परंतु सिंघाडी का एक कौना जलने से यह जल गई ऐसा कहा नहीं जायेगा, क्योंकि आप तो कार्य पूर्ण होने पर ही कार्य हुआ ऐसा मानती हो, इसलिये इस सिंघाडी का एक कौना जलने से वह जल गई ऐसा नहीं कहा जायेगा। पूरी जल गई होती तो ही तुम्हारे से जली ऐसा कहा जायेगा। ऐसे वचन से प्रियदर्शना तत्काल समझ गई और बोली, 'यह सही युक्ति मुझे समझाकर तूने ठीक ही किया। 'तत्पश्चात् भगवंत का वचन खरा है यूं मानकर पूर्व की कुश्रद्धा को मिच्छामि दुक्कडं किया। जमाली के पास जाकर वह युक्ति से बोध देने लगी लेकिन उसके थोड़ा सा भी न मानने पर गच्छ छोड़कर भगवंत के पास चली गई। जिन शासन के चमकते हीरे • १५७
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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