SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -जमाली कुंडपुर नामक नगर में जगद्गुरु श्री महावीर स्वामी की बहिन का पुत्र (भानजा) जमाली नामक एक राजपुत्र रहता था। वह महावीर स्वामी की पुत्री प्रियदर्शना से ब्याहा था। केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् एक बार श्री वीर भगवान विचरते विचरते उस नगर के उद्यान में आये। यह ज्ञात होते ही जमाली उनकी वेदना करने गया। प्रदक्षिणा देकर उनके पास बैठा। प्रभु ने देशना सुनाई : ___'घर, मित्र, पुत्र, स्त्री वर्ग, धान्य, धन यह सब मेरे हैं, इसे मैंने कमाया है - ऐसा विचार करते हैं पर मूर्ख ऐसा नहीं सोचते हैं कि 'सब यहीं छोड़कर जाना है।' प्रभु की ऐसी वाणी सुनकर घर आकर बड़े आग्रह से मातापिता की आज्ञा लेकर जमाली ने पाँचसौं क्षत्रियों के साथ और प्रियदर्शना ने एक हजार स्त्रियों सहित प्रभु के पास आकर दीक्षा ग्रहण की। ग्यारह अंगो अध्ययन के बाद जमाली ने भगवंत के पास आकर पाँचसौं के साथ अलग विहार करने की अनुमति माँगी। भगवंत के कुछ बी उत्तर न देने पर उसे अनुमति समझकर उसने अपने पांचसौ शिष्यों के साथ अलग विहार किया। एक बार वे श्रावस्ती नगर के तिंदूक नामक उद्यान में ठहरे। वहाँ अंतप्रांत तुच्छ आहार मिलने से जमाली के शरीर में ऐसा रोग उत्पन्न हुआ कि उसकी शक्ति चली जाने से वह बैठ नहीं पाता था, इसलिये शिष्यों को आज्ञा दी, 'मुझसे बैठा नहीं जा रहा है तो मेरे लिए जल्दी से 'संथारा बिछा दो, 'जिस पर मैं सो जाऊँगा।' शिष्य संथारा बिछाने लगे पर दाहज्वर वगैरह की वेदना अत्यंत बढ़ जाने से अधीर होकर जमाली ने पूछा, 'अरे संथारा बिछाया या नहीं?' शिष्यों ने संथारा आधा बिछाया था और आधा बिछाना बाकी था फिर भी उन्हें साता देने के लिए उत्तर दिया, 'हाँ... बिछा दिया है।' वेदना से उकता उठा जमाली वहाँ आकर देखता है तो संथारा पूरा बिछा हुआ न था, वह क्रोधायमान होकर 'करमाणेकडे' (करने लगा वह हुआ) ऐसा सिद्धांत का वाक्य याद करके मिथ्यात्व का उदय होने से सोचने लगा कि ककमाणेकडे चलमाणे चलीए' आदि भगवंत वाक्य झूठे हैं । मुझे प्रत्यक्ष दिखता है कि यह संथारा करने लगे हैं लेकिन हुआ नहीं है, सो समस्त जिन शासन के चमकते हीरे • १५५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy