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इस संसार में प्राणी का शरीर भी अपना नहीं है तो अन्य कोई कैसे होगा ? इसलिये मैं तो यहीं पादपोपगम अनशन करूंगा। पश्चात् वे मुझे यहाँ से बांधकर ले जायेंगे तो भी क्या करेंगे ?' इस प्रकार सिंह श्रेष्ठि शेर की तरह अनशन लेने चला। कुमार भी उसके साथ गया। रात्रि हुई। सैनिकों ने कुमार और सिंह को देखा नहीं तो वे चारोंओर उन्हें ढूंढने लगे। ऐसा करते हुए थोड़े दूर पर्वत पर वे दोनों उनके देखने में आये । परंतु दीक्षा और अनशन का प्रारंभ कर बैठे उन दोनों को देखकर सैनिकों ने प्रणाम करके कहा : 'हे महाशयो ! हमारा अपराध क्षमा करें। परंतु हे स्वामी ! यह खबर सुनकर महाराजा हमें कोल्हू में डालकर पीस डालेगा।'
इस प्रकार कहकर वे बहुत गिड़गिड़ाए। फिर भी उन्होंने जरा सा भी क्षोभ न पाया। कहा गया है कि 'संतोषरूपी अमृत तृप्त हुए योगी भोग की इच्छा नहीं करते है; क्योंकि वे तो मिट्टी तथा स्वर्ण में और शत्रु तथा मित्र में कुछ फर्क समझते नहीं है।
अनुक्रम से यह बात कीर्तिपाल राजा को ज्ञान हुई, इससे उसने निश्चय किया कि 'कुमार को बांध कर शादी करा देनी व सिंह को शत्रु की तरह मार डालना।' इस विचार से राजा उनके पास आया तो वहाँ बाघ आदि प्राणियों को दोनों के चरणों की सेवा करते देखकर राजा आश्चर्य में पड़ गया और सोचा, 'इन दोनों को भक्ति वचन से ही बुलाऊँ। इस प्रकार वह विनयी वाक्यों से उन्हें बुलाने लगा। परंतु दृढ प्रतिज्ञावाले वे थोड़ा सा भी चलित नहीं हुए। क्रमानुसार मासोपवास के अंत में केवलज्ञान प्राप्त करके सुर-असुरों ने जिन्हे शीश झुकाया वे दोनों मुक्ति को प्राप्त हुए। उनका मुक्ति प्रयाण जानकर कीर्तिपाल राजा ने उच्च स्वर में कहा, 'हे मित्र ! तेरा तो ऐसा निश्चय था कि सौ योजन से अधिक जाना नहीं, परंतु इस बार तू मुझे छोड़कर असंख्य योजन दूर रहे शिवनगर को क्यों चला गया ?' इस प्रकार विलाप करते हुए राजा अपने नगर में आया । ' प्राण त्याग करना पड़े भले ही लेकिन स्वीकार किये हुए व्रत का त्याग करना ठीक नहीं ऐसा दृढ़ विचार रखकर सब भव्य प्राणियों को सिंह श्रेष्ठि जैसा दिग्विरति व्रत ग्रहण करना चाहिए ।
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ॐकार बिन्दु-संयुक्त, नित्यं ध्यायन्ति योगिन; कामादं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमो नमः ।
जिन शासन के चमकते हीरे १५१