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________________ तब सुलसा बोली, 'जीव जो शुभाशुभ कर्म बांधता है, वह भोगे बिना उसका छूटकारा नहीं होता।' हरिणेगमेषी देव ने भी कहा, 'बराबर है, भवितव्यता का कोई उल्लंघन कर नहीं सकता । ' सुलसा बोली : ' हे हरिणेगमेषी ! मुझे अब क्या करना ? मैंने यह कार्य गलत तो किया ही है; यदि कर्म मेरे अनुकूल हो और तुम्हारी शक्ति हो तो मेरी उदर व्यथा दूर कर, नहीं तो मैं मेरा कर्म भोगूंगी। यदि तू मेरी व्यथा दूर करेगा तो जिनशासन की उन्नति होगी। इससे देव ने प्रसन्न होकर उसके उदर की पीड़ा दूर कर दी और अपने स्थान पर लौट गया। तत्पश्चात् सुलसा धर्म में चित्त जोड़कर, शुभ आहार से गर्भ का पोषण करने लगी और उसने संपूर्ण समय पर सुस्वप्न में सूचित ऐसे बत्तीस पुत्रों की जन्म दिया । नागरथिक ने महादान देकर उनका जन्मोत्सव मनाया। कालक्रमानुसार बत्तीस पुत्र युवा हुए और वे बत्तीस भाई श्रेणिक राजा के विश्वासु सेवक बनें। उस समय विशाला नगरी में चेटक नामक राज्य करता था । उसको सात पुत्रियाँ थी। उसमें सुज्येष्ठा सबसे बड़ी थी। एक बार कोई तपस्विनी दरबार में माँगने के लिए आयी थी । उसने अपने मिथ्यात्वं धर्म के बखान किये, सुज्येष्ठा ने उसका तिरस्कार करके हाँक निकाला। इस कारण जोगन ने सुज्येष्ठा पर कोपायमान होकर उसके रूप का एक चित्र बनाकर श्रेणिक राजा को दिखाया । सुज्येष्ठा का सौंदर्य अत्यंत प्रशंसालायक होने के कारण श्रेणिक राजा उस पर मोहित हुआ और उसके साथ शादी करने का सोचा परंतु चेटक राजा के साथ लम्बे अरसे से दुश्मनी होने के कारण वह शायद अपनी पुत्री से शादी नहीं करायेगा - ऐसा सोचकर मन में उदास रहने लगा। अभयकुमार उसका पुत्र और मुख्य दीवान होने से उदासी का कारण श्रेणिक से जान लिया । C अभयकुमार ने विशाखा नगर में जाकर वणिक बनकर दरबार के दरवाजे के नज़दीक एक दुकान लगाई । दरबार की दासियाँ इस दुकान से माल खरीदने लगी पर सुज्येष्ठा की दासी माल खरीदने आती तो अभयकुमार राजा के चित्र की पूजा करने के लिए बैठता । हररोज ऐसा होने से दासी ने पूछा, 'यह किसकी पूजा करते हो ?' उसने जवाब दिया, 'सत्यवादी और पूर्ण न्यायी राजा श्रेणिक की पूजा करता हूँ। ऐसा कहकर श्रेणिक की तस्वीर बतायी। तस्वीर देखकर वह मोहित हो जिन शासन के चमकते हीरे • १४४
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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