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करने लगी। इन्द्र ने उसका सत्त्व अवधिज्ञान से ज्ञात करके, अपनी सभा में उसकी प्रशंसा की, 'इस समय मृत्युलोक में सुलसा नामक श्राविका है। वह ऐसी है कि उसे धर्मकार्य में से कोई भी चलित नहीं कर सकता।' यह प्रशंसा सुनकर हरिणेगमेषी देव सुलसा की परीक्षा करने के लिये स्वर्ग से दो साधुओं का रूप लेकर नागरथिक के घर पधारे । दो साधुओं को आते देखकर सुलसा प्रसन्न होकर खड़ी हो गई और साधू मानकर उन्हें वंदन किया। तब वे बोले, 'श्रद्धालु श्राविका ! एक साधू बीमार हो गये हैं, उन्हें शरीर पर लगाने के लिये सहस्रपाक नामक तैल की हमें जरूरत है, इसकी व्यवस्था है ? उसने हाँ कही और तैल की बोतलें जहाँ रखी थी वहाँ श्रद्धापूर्वक बोतल लेने गई । वहाँ से बोतल लेकर देने जा रही थी की देवता की माया से जमीन पर गिरकर बोतल टूट गई। तब सुलशा दूसरी बोतल लेने गई, वह भी आते आते टूट गई। इस प्रकार सात बोतलें टूटने पर उसका भाव पूर्वानुसार का ही देखकर देवता प्रकट हुए और अभिनंदन देकर बोला, हे कल्याणी, तू डरना नहीं। इन्द्र महाराज ने तेरे सत्त्व की प्रशंसा की जिससे तेरी परीक्षा करने मैं साधू रूप धारण करके आया हूँ। वाकई में तू सत्त्वधारी है। तेरा सत्त्व देखकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ हूँ। इसलिये तू मुझसे कुछ वर मांग।' उसने कहा, 'यदि ऐसा ही है तो मुझे पुत्र हो ऐसा वरदान दो।' देवता ने खुश होकर बत्तीस गोलियां देकर कहा, 'इसमें से एक एक गोली खाने से एक एक पुत्र होगा' कहकर तैल की बोतलें पुनः जोड़कर देवता अपने स्थानक पर गया।
__ प्रभुपूजा में तत्पर ऐसी सुलसा भोगविलास करते करते एक बार ऋतुकाल प्राप्त होने पर भी धर्मशील सुलसा सोचने लगी, मुझे अधिक पुत्रों का क्या करना है? यदि एक ही पुण्यवान् और सर्वज्ञ की पूजा करनेवाला पुत्र होगा तो एक से भी सुख प्राप्त होगा। बत्तीस पुत्र होने पर उनके मल-मूत्रादि से धर्मकार्य में बड़ा विघ्न होगा। इसलिये बत्तीस लक्षणवाला एक ही पुत्र हो तो अच्छा। ऐसा सोचकर सुलसा वह बत्तीस गुटिका एक साथ खा गई। इससे बत्तीस गर्भ एक साथ उसके पेट में ठहर गये। उस बोझ के कारण उसे असह्य वेदना होने लगी। उसने 'हरिणीगमेषी' देव के नामका काउस्सग किया तो देव उनके पास आया। उसने सुलसा की वेदना हर ली और कहा, 'तूने बडा अयोग्य काम कर डाला, क्योंकि तू बत्तीस गोलियाँ एक साथ खा गई है तो तू बत्तीस पुत्रों को एक साथ जनेगी, इतना ही नहीं उन सबका आयुष्य एकसा होगा। वे सब एक साथ मृत्यु पायेंगे।
जिन शासन के चमकते हीरे • १४३