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का गोला उसके उपर फेंका। उस वक्त नागिल जिस नमस्कार मन्त्र का स्मरण करे जा रहा था उसके प्रभाव से गोले के छोटे छोटे टुकडे हो गये । इससे बाला लज्जित होकर अदृश्य हो गई और कुछ ही देर में नंदा का रूप लेकर एस दासी द्वारा खोले गये दरवाजे से वहाँ आयी और मधुर वाणी से बोली, 'हे स्वामी ! आपके बिना मुझको पिता का घर नहीं भाया। इस कारण रात्री होने पर भी मैं यहाँ चली आई।' उसे देखकर नागिल सोच में पड़ गया कि, 'नंदा विषय भोग में स्वपति के सम्बन्ध भी संतोषी है, इसलिये उसकी ऐसी चेष्टा संभवित नहीं है। इसका रूप-रंग सब कुछ नंदा जैसा है लेकिन परिणाम उसके जैसे दिखते नहीं है। इसलिये उसकी परीक्षा किए बिना विश्वास करना योग्य नहीं है। ऐसा सोचकर नागिल ने कहा : 'हे प्रिये ! यदि तू वाकई में नंदा हो तो मेरे समीप अस्खलितपूर्वक चली आ।' यह सुनकर वह खेचरी जैसेही उसके सामने चली वैसे ही वह मार्ग में स्थिर हो गई। बड़े कष्ट के बाद भी पाँव न उठा। धर्म की महिमा से नागिल ने उसका सर्व कपट जान लिया। तत्पश्चात् उसने सोचा, कभी अन्य किसीके कपट से इस प्रकार शील का भंग भी हो सकता है सो सर्व प्रकार से विरतिता ही ग्रहण करने योग्य है । ऐसा सोचकर उसने तत्काल केश लोचन किया और उस यक्षदीप को कहा, 'अब तु तेरे स्थान पर लौट जा।' यक्ष ने कहा, 'मैं आजीवन आपकी सेवा करूंगा। मेरे तेज से आपको उजेही (दीपक की जो उजेही गिरती है, वह स्थान मुनि को वर्ण्य है) नहीं पड़ेगी।' तत्पश्चात् सूर्य का उदय होते ही नागिल ने नंदा के साथ गुरु के पास जाकर व्रत ग्रहण किया और यक्षदीप के साथ आश्चर्य सहित पृथ्वी पर विहार करके संयम पालते हुए दंपती मृत्यु पाकर हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिये जन्में । वहाँ से देवता बनकर पुनः नरभव पाया और मोक्ष प्राप्त किया। इस नागिल ने द्रव्यदीप से शुभ ऐसे भावदीप का चिंतन किया और स्वदारा संतोष के व्रत में दृढ प्रतिज्ञा पाली तो वह विद्याधरी से भी कंपित नहीं हुआ। इसलिये सर्व प्राणियों को स्वदारा संतोष व्रत दृढता से धारण करना चाहिये।
अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता: सिद्धार्थ सिद्धिस्थिताः आचायाजिन शासनान्नतिकराः पन्या उपाध्यायका श्री सिद्धान्त-सुपाठका मनिवरा, रत्नच्याराधका पंचैर्ते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम्।
जिन शासन के चमकते हीरे . १३५