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-जिनदास और सौभाग्यदेवी
बसंतपुर नामक नगर में शिवशंकर श्रावक रहता था। एक दिन उस नगर में धर्मदास नामक एक सूरि पधारे। उन्हें वंदन करने शिवशंकर गया। वंदन करके गुरु से कई आलोचना ली और हर्षपूर्वक बोला, 'हे भगवन् ! मेरे मन में लाख साधर्मिक भाइयों को भोजन कराने का मनोरथ हैं, परंतु उतना धन मेरे पास नहीं है। मैं क्या करूं जिससे मेरी यह मनोकांक्षा पूर्ण हो जाये ?' गुरु ने कहा : 'तू मुनि सुव्रतस्वामी को वंदन करने भरुच जा, वहाँ जिनदास नामक श्रावक रहता है, उसकी सौभाग्यदेवी नामक भार्या है। तू उन दोनों को तेरी सर्वशक्ति और भाव से भोजन, अलंकार वगैरह देकर प्रसन्न कर। उनके वात्सल्य से तुमको एक लाख साधर्मिक को भोजन कराने जितना पुण्य होगा।' इस प्रकार के गुरुवचन सुनकर शिवशंकर ने बताये अनुसार करा। भोजनादिक भक्ति से जिनदास और सौभाग्यदेवी की सेवा की।
शिवशंकर आश्चर्य के साथ सोचते रहे कि इस दंपती में ऐसे क्या गुण होंगे कि सूरिजी ने उनकी भक्ति करन से लाख साधर्मिक भाइयों को भोजन कराने जितना पुण्य उपार्जन होगा - ऐसा कहा । इसका कारण जानना - समझना चाहिये। ऐसे विचार से उन्होंने गाँव के लोगों को पूछा कि यह जिनदास सचमुच उत्तम मनुष्य है कि दांभिक ? तब लोगों ने कहा, 'हे भाई सून । यह जिनदास सात वर्ष का था तब एक दिन उपाश्रय पर गया था। वहाँ गुरु मुख से शीलोपदेश माला का व्याख्यान सुनकर उसने एकांतरा ब्रह्मचर्य पालन का नियम ग्रहण किया। इस प्रकार सौभाग्यदेवी ने सभी बाल्यावस्था में साध्वी से एकांतरा शील पालन का व्रत ग्रहण किया। दैव योग से दोनों का परस्पर पाणिग्रहण किया लेकिन शील पालन के क्रम में जिस दिन जिनदास को छूट थी उसी दिन सौभाग्यदेवी को व्रत रहता था और सौभाग्यदेवी को छूट थी उसी दिन जिनदास व्रत से बंधा हुआ था। शादी के बाद यह बात एक दूसरे को ज्ञात हुई तो सौभाग्यदेवी ने जिनदास को कहा, 'हे स्वामी! मैं तो निरंतर शील पालूंगी, आप खुशी से अन्य स्त्री के साथ शादी कीजिए।' लेकिन ज़िनदास ने जवाब दिया, 'मुझे तो दूसरा ब्याह करना ही नहीं है, लेकिन मैं योग्य समय पर
जिन शासन के चमकते हीरे . १३६