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________________ नागिल ने पूछा, 'हे भगवन् ! सर्व धर्म में कौनसा धर्म श्रेष्ठ है ?' मुनि बोले, 'हे भद्र ! श्री जिनेन्द प्रभु ने अपनी महक से तीनों भुवन को सुगंधित करनेवाला, समकितपूर्वक शीलधर्म को सर्वधर्म में श्रेष्ठ कहा है।' उसके बारे शासन में कहा है, 'जिस पुरुष ने अपने शीलरूपी कपूर की सुगंध से समस्त भुवन को खुशबुदार किया हो उस पुरुष को हम बार बार नमस्कार करते हैं।' आगे कहा है कि, ' क्षण भर भावना व्यक्त करनी, अमुक समय दान देना, फलाँ तपस्या करनी, वह स्वल्पकालीन होने से सुकर है लेकिन आजीवन शील पालना दुष्कर है।' नारद सब जगह पर क्लेश करानेवाला, सर्व जनों का विध्वंस करनेवाला और सावद्य योग में तत्पर होने पर भी सिद्धि को पाता है सौ निश्चय ही शील का ही माहात्म्य है।' इस प्रकार के गुरु वचन सुनकर नागल ने प्रतिबोध पाया और तत्काल समकितशील और विवेकरूपी दीपक का स्वीकार करके वह उस दिन से श्रावक धर्म का आचरण करने लगा । एक बार नंदा ने कहा, 'हे स्वामी ! आपने बहुत अच्छा किया आत्मा को विवेकी बनाया। शास्त्र में कहा है कि जिनेश्वर की पूजा, मुनि को दान, साधर्मी का वात्सल्य, शील पालन और परोपकार आदि विवेकरूपी वृक्ष के पल्लव हैं ।' नागिल बोला, 'प्रिया ! सर्व को आत्मा के हित के लिये विवेक से धर्म करना है। विवेकरूपी अंकुश के बिना मनुष्य सर्वदा दुःखी ही होता है। इस प्रकार के वचन सुनकर नंदा बहुत ही हर्षित हुई और भाव से पति की सेवा करने लगी ।' एक बार नंदा पिता के घर गई थी । नागिल अकेला चन्द्रमा के ऊजाले में सो रहा था। इतने में किसी पतिवियोगी विद्याधर की पुत्री ने उसको देखा और तत्काल कामातुर होकर वहाँ आयी और कहा, 'हे महापुरुष ! यदि मुझे स्त्री के रूप में स्वीकारोगे तो मैं तुम्हें अपूर्व विद्या सीखाऊँगी । यह मेरा लावण्य देखो, मेरे वचन को मिथ्या मत करना।' इस प्रकार कहकर थरथराती हुई वह बाला नागिल के चरणों में गिर पड़ी। इस कारण नागिल मानो अग्नि से जल रहे हो वैसे पाँव संकोर लिये । बाला लोहे का अग्नि से गर्म किया हुआ गोला बताकर कहने लगी, 'अरे अधम ! मुझे भज, नहीं तो मैं तूझे भस्मीभूत कर डालूंगी ।' यह सुनकर नागिल निर्भयता से सोचने लगा कि, 'दस मस्तिष्कवाले रावण जैसा, कामदेव समान राक्षस, जो देव-दानवों से दुर्जय है, वह भी शील-समान अस्त्र से साध्य होता है।' यूं वे सोच रहे थे कि सुत्कार शब्द कहती हुई उस बाला ने अग्निमय रक्तवर्णी लोहे जिन शासन के चमकते हीरे १३४
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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