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________________ ५२-श्री कंडरीक - पुंडरीक जंबूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में पुंडरीकिणी नामक नगरी में महापद्म नामक राजा राज्य करता था। उसको दो पुत्र हुए। राजा को वैराग्य उत्पन्न होने से बड़े पुत्र पुंडरीक को राजगद्दी देकर अपने छोटे पुत्र कंडरीक को युवराज पदवी दी। स्वयं दीक्षा लेकर कर्मक्षय करके मुक्ति पाई। ___ एक बार कई साधू उस नगरी में पधारे । उनको वंदन करने दोनों भाई गये। उन्होंने मुनि को धर्म का तत्त्व समझाते हुए कहा, 'जो प्राणी इस संसार समुद्र में भटककर महा कष्ट से प्राप्त जहाज जैसे मनुष्य भव को बेकार गँवा देता है, उससे अधिक मुर्ख किसे कहा जाय?' ___ऐसी देशना सुनकर दोनो भाई घर लौटे। पुंडरीक ने छोटे भाई को कहा, 'हे वत्स! इस राज्य को ग्रहण कर, मैं दीक्षा ग्रहण करूंगा।' कंडरीक बोला : 'हे भाई! संसार के दुःखो में मुझे क्यों धकेल रहे हो? मैं दीक्षा लूंगा।' ___बड़े भाई ने कहा, 'हे भाई! युवावस्था में इन्द्रियों के समूह को नहीं जीता जा सकता है और परिषह भी सहन नहीं हो सकते हैं।' कंडरीक बोला, 'हे भाई! नरक के दुःख के सामने परिषह आदि का दुःख अधिक नहीं है, इसलिये मैं तो चारित्र ही ग्रहण करूंगा।' कंडरीक का ऐसा आग्रह देखकर पुंडरीक ने उसे अनुमति दे दी। उसने बड़े उत्साहपूर्वक दीक्षा ग्रहण की और पंडरिक मंत्रियों के आग्रह से भावचारित्र धरकर घर में ही रहा। कंडरीक ऋषिने ग्यारह अंगो का अध्ययन किया, किन्तु रूखे-सूखे भोजन एवं कड़ा तप करने से उसके शरीर में कई रोग उत्पन्न हुए। गुरु के साथ विहार करते करते कंडरीक मुनि अपने नगर पुंडरीकिणी में आये। पुंडरीक राजा उन्हें वंदन करने गये। सब साधुओं को वंदन किया लेकिन शरीर कृश हो जाने के कारण अपने भाई को न पहचाना। भाई सम्बन्धी समाचार गुरु को पूछे। गुरु ने कंडरीक मुनि को बताकर कहा, 'ये जो मेरे पास खडे है वे ही आपके भाई हैं।' राजा ने उन्हें प्रणाम किया, तत्पश्चात् उनका शरीर रोगग्रस्त जानकर गुरु से आज्ञा लेकर राजा शहर में ले गया। उन्हें अपनी वाहनशाला में रखकर अच्छे अच्छे राजऔषधों से उन्हें रोगरहित जिन शासन के चमकते हीरे . ११६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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