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________________ कर दिया। वहाँ स्वादिष्ट भोजन करने से मुनि रसलोलुप बन गये इसलिए वहाँ से विहार करने की इच्छा न हुई। राजा उन्हें कहने लगा, 'हे पूज्य मुनि! आप तो अहर्निश विहार करनेवाले हो; द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों प्रकार के प्रतिबंध से रहित हो। निरोगी होने से अब विहार करने के लिए आप उत्सुक बने होंगे। आपके निग्रंथ को धन्य है। मैं अधन्य हूँ क्योंकि भोगरूपी कीचड़ में फँसा होने पर भी कदर्थना पाता हूँ।' इत्यादि वचन राजाने बार बार कहे। इसलिये कंडरीक मुनि लज्जित होकर विहार करके गुरु के पास गये। बसंत ऋतु में अपनी अपनी स्त्रीयों के साथ क्रीडा करते हुए नगरजनों को देखकर एक दिन चारित्रावरणीय कर्मों का उदय होने से कुंडरिक का मन चारित्र से चलायमान हुआ। इस कारण गुरु की आज्ञा लिये बगैर वे डरीकिणी नगरी के पास के एक उपवन में आये और पात्रा वगैरह उपकरण पेड़ की डाली पर लटकाकर कोमल हरे घास पर लोटने लगे। संयम से भ्रष्ट चित्तवाले हुए कंडरीक को उनकी धावमाता ने देखा। उसने नगर में जाकर 'पुंडरिक राजा को बात बताई। यह सुनकर राजा परिवार सहित वहाँ आया। उस वक्त कंडरीक को चिंतातुर, प्रमादी और भूमि कुरेदते हुए देखकर राजा ने कहा, 'हे सुखदुःख में समान भाववाले! हे निःस्पृह! हे निग्रंथ! हे मुनि! आप पुण्यशाली हो और संयम पालन में धन्य हो।' इत्यादि अनेक प्रकार से उनकी प्रशंसा की लेकिन वे नीचा ही देखते रहे तथा कोई उत्तर भी न दिया। इसलिये राजा ने उसे संयम से भ्रष्ट बना और संयम की अनिष्टतावाला मानकर पूछा, 'हे मुनि! इस भाई के सामने क्यों नहीं देखते हो? प्रशस्त ध्यान में मग्न हो या अप्रशस्त ध्यान में? यदि अप्रशस्त ध्यान में आरूढ हुए हो तो आपने पूर्व में जबरदस्ती से बड़े भावराज्य को ग्रहण किया है। उसके चिह्नभूत पात्र आदि मुझे दीजिये और महा विरस फल देनेवाले राज्य के चिह्नभूत ये पट्टहस्ती वगैरह आप ग्रहण कीजिए।' राजा के इस प्रकार के वचन सुनकर कंडरीक बहुत हर्षित हुआ और शीघ्र ही पट्टहस्ती पर सवार होकर नगर में गया । साधूश्रेष्ठ ऐसे पुंडरीक ने विलाप करती रानियाँ आदि को सर्प की केंचुली की भाँति छोडकर यति का भेष धर कर तुरंत ही वहाँ से विहार किया। उसी दिन लम्बे अरसे से भूखा होने के कारण अपनी इच्छानुसार भक्षाभक्ष के विवेक बिना कंडरीक ने अनेक प्रकार का भोजन किया। कृश शरीर को जिन शासन के चमकते हीरे • ११७
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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