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खून तो नहीं निकला है न?' लेकिन भद्रसेन मौन रहते हैं। आचार्य पूछते हैं, 'तूझे सीधा रास्ता दीखा तो कौनसे ज्ञानयोग से? रास्ते में तूझे कुछ स्खलना तो नहीं आई है ना? वत्स! क्या हकीकत है? वह तू मुझे यथार्थ बता दे।' भद्रसेन कहते हैं, 'प्रभु! आपकी कृपा से ही ज्ञान प्राप्त हुआ है। उसके योग से मैं मार्ग जान सका हूँ।' आचार्यश्री अधिक स्पष्टीकरण करने के लिए शिष्य को पूछते है, 'वत्स! वह ज्ञान प्रतिपाति या अप्रतिपाति?'
भद्रसेन कहते हैं, 'भगवन्! अप्रतिपाति।' यह सुनकर आचार्यश्री. कंधे पर से उतरकर केवलज्ञानी शिष्य से क्षमा-याचना करते हैं। अपने ही क्रोध के कारण जो अपराध हुआ है उसका उन्हें तीव्र पश्चात्ताप होता है और मन ही मन सोचते हैं, 'हाँ... मैं केसा पापी? इतने वर्षों से संयम, तप, स्वाध्याय आदि की आराधना करने पर भी बात बात में क्रोध के आधीन होकर मुझे उग्र होने में देर नहीं लगती है। आचार्य के पद पर आरुढ़ होने के बावजूद मैं इतनी क्षमा नहीं रख सकता हूँ। मेरा संयम, मेरी आराधना वाकई निष्फल हो गई। इस नवदीक्षित को धन्य है। अभी कल ही जिसने संयम स्वीकार किया है, उसमें कैसी अद्भुत क्षमा! कैसी अप्रतिम सरलता! और कैसा उनका अनुपम समर्पण! मैं हीनभाग्य हूँ। यह पुण्यात्मा तैर गया, मैंने पाया है फिर भी डूब रहा हूँ।'
इस प्रकार सोचते और केवलज्ञानी नूतन मुनि से क्षमा माँगते हुए, अपनी आपकी लघुता और सरलतापूर्वक निंदा करते हुए, शुभ ध्यान में लीन होकर आचार्य महाराज ने भी क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ होकर केवलज्ञान पाया। इस प्रकार गुरु व शिष्य दोनों ही तैर गये। धन्य सरलता! धन्य क्षमापना!
है प्रभु पास चिंतामणि हे प्रभु पास चिंतामणि मेरो, मिल गयो हीरो, मिट गयो फेरो, नाम जपु नित्य तेरो...प्रभु० प्रीत लगी मेरी प्रभुजी से प्यारी, जैसे चंद चकोरो... प्रभु आनंदघन प्रभु चरन शरन है, बहोत दियो मुक्ति को डेरो...प्रभुः
'मेरे स्वामी परम सामर्थ्यवान है, मैं उनका सेवक हूँ।' ऐसा ख्याल न आये तब तक मनुष्य के दुःखो का बोज थोड़ा सा भी कम नहीं होता है। ..............----------
जिन शासन के चमकते हीरे . ११०
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