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________________ आचार्य महाराज नूतनदीक्षित मुनि को कहते है, 'तेरी बात सही है। तू एक बार रास्ता देखकर आ। इस समय शाम होने आई है। अंधेरा हो जायेगा तो रास्ते में तकलीफ खड़ी हो जायेगी।' भद्रसेन मुनि थोडा दूर जाकर रास्ता देख आते है और आचार्य श्री को लेकर उस स्थानक से निकल जाते है। गुरुमहाराज वृद्ध हैं और आँखे कमजोर हैं इसलिए भद्रसेन मुनि उन्हें कंधों पर बिठाकर जल्दी जल्दी विहार करते हैं। रास्ता उबडखाबड होने से कंधे पर बैठे महाराज को हिचकोले आते हैं और वे नूतन दीक्षित को बराबर चलने के लिए चेतावनी देते हैं। अंधेरा बढ़ते ही रास्ते के खड्डे में पाँव धंसने से भद्रसेन मुनि कइ बार सन्तुलन गँवा देते है। इस कारण आचार्य अति क्रोध से नूतन मुनि के सिर पर अपने डण्डे का वार करते हैं और कहते है, 'तूझे दिखता नहीं है। मेरी इस वृद्धावस्था में भी तू मुझे इस प्रकार दुःख दे रहा है।' डण्डे की चोट से और केश लोचन भी उसी दिन किया होने के कारण नूतन मुनि के गंजे सिर में से खून आने लगता है। इस अवस्था में भी नवदीक्षित भद्रसेन मुनि समता धर कर सोचते हैं, 'धिक्कार है मेरी आत्मा को, मैंने पूज्यश्री को प्रथम दिन पर ही, गुरुदेव को कष्ट पहुँचाया। मुझे धीरे धीरे संभल संभल कर चलना चाहिए था। ऐसे गुणरत्नसागर जैसे गुरुदेव को मैंने रोष का निमित्त दे दिया। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। दोषित तो वाकई मैं हूँ।' इस प्रकार हृदय की सरलता से भद्रिक ऐसे नूतन मुनि अपने दोषों को देखकर शुभ ध्यान में डूब गये और क्षपक श्रेणी में पहुँचते ही उन्होंने केवलज्ञान पाया। केवलज्ञानी ऐसे भद्रसेन मुनि ज्ञान के योग से सब कुछ जान सकते हैं। अब वे कंधो पर बैठे गुरुमहाराज को थोडा सा भी धक्का न लगे उस प्रकार से सीधे रास्ते पर ले जाते हैं। आचार्य महाराज कहते है, 'अब तू वाकई में ठिकाने आ गया। संसार में ऐसा नियम है कि चमत्कार के बिना नमस्कार नहीं। डंडा पड़ा तो कैसा सीधा हो गया! क्यों बराबर है ना? अब सीधा चलने लगा न।' नवदीक्षित कहते है, भगवान ! यह सब आपकी कृपा का फल है। रास्ता बराबर जान सकता हूँ, यह आपश्री की मधु दृष्टि एव योग के ज्ञान से पता चल जाता है' यह सुनकर आचार्य चकित हो जाते हैं और सोचते है कि नूतन दीक्षित कहता है कि ज्ञान से जाना जा सकता हैं तो उसे कौन सा ज्ञान होगा? अब थोड़ा थोड़ा उजाला होने से गुरुमहाराज को शिष्य के सिर पर खून निकला हुआ दिखता है, वे पूछते है, 'मेरे डण्डे की चोट से तुझे यह जिन शासन के चमकते हीरे . १०९
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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