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________________ लगे। देवदुंदुभी सुनकर नगरजन एकत्रित हुए। वहाँ का राजा शतानिक भी वहाँ आ पहुँचा। वहाँ देवकृत्य सुवर्णवृष्टि देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया और बोला कि यह सर्व सुवर्ण इस चन्दनबाला का हो जाये।' इस प्रकार भगवंत ने पाँच माह और पच्चीस दिन बीतने पर पारणा किया। चन्दनबाला बड़े हर्ष से बोली, 'आज मेरे महाभाग्य से मैंने प्रभु को पारणा करवाया; इसमें मूला सेठानी को भी धन्य हैं। वे मेरी माता समान हैं। मेरी माता धारिणी जो कार्य नहीं कर सकी वे सब मेरी ये मूलादेवी माता से सिद्ध हुआ है।' उसने धनावह सेठ को भी समझाया कि, 'मूलादेवी को कुछ कहना मत।' इससे मूला श्राविका बनी और चन्दनबाला का योग्य समान करने लगी। __महावीर प्रभु यहाँ से विहार कर गये। क्रमानुसार उनके सर्व कर्मों का क्षय हुआ और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु के पास आकर चन्दनबाला ने प्रभु को प्रणाम करके चारित्र की याचना की। देवताओं ने दिया हुआ धन सात क्षेत्रों में खर्च करके उसने दीक्षा ली। जिन्होंने चन्दनबाला से दीक्षा ली थी वह मृगावती एक बार भगवान की वाणी सुनने गई थी। भगवान की वाणी श्रवण करने के लिये सूर्य, चन्द्र भी पधारे थे। उनके उजाले के कारण मृगावती उपाश्रय पर बड़ी देर से पहुँची; रात्रि हो जाने के कारण चन्दनबाला ने उन्हें डाँटा। ___मृगावती अपने पर लगे अतिचार के लिए आत्मा की निंदा करती हुई, 'अब ऐसा नहीं करूंगी' कहकर मिथ्या दुष्कृत्य देने लगी।आत्मनिंदा के उत्कृष्ट परिणाम स्वरूप उन्हें केवलज्ञान हुआ। उसी रात्री को मृगावती जो चन्दनबाला के पास ही खड़ी थी, उसने चन्दनबाला के समीप से जाता हुआ एक साँप देखा। उसने चन्दनबाला का हाथ उठाकर दूसरी और रखा। तब चन्दनबाला बोली, "तुमने मेरा हाथ क्यों उठाया?' मृगावती ने उत्तर दिया, 'यहाँ से सर्प जा रहा था, जिससे मैंने आपका हाथ उठाकर दूसरी ओर रखा।' चन्दनबाला ने पूछा, 'रात्रि के घोर अंधकार में तुमने सर्प कैसे देखा?' मृगावतीने कहा, 'ज्ञान से।' 'अहो हो! प्रतिपाति या अप्रतिपाति ज्ञान?' चन्दनबालाने पूछा। जवाब में मृगावतीने 'अप्रतिपाति ज्ञान' कहा। चन्दनबाला समझ गई कि मृगावती को केवलज्ञान हुआ है। उसने मृगावती से क्षमायाचना करके मिथ्या दुष्कृत्य टाला। इस कारण से चन्दनबाला ने भी केवलज्ञान पाया और दोनों ने मुक्ति पाई। जिन शासन के चमकते हीरे . १०३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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