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________________ ४८ -श्री चिलाती पुत्र एक यज्ञदेव नामक ब्राह्मण... क्षिति प्रतिष्ठित नगर में रहता था। वह हमेशा जिनमत की निंदा करता था और स्वयं को पण्डित समझता। उसने जाहिर किया कि जो मुझे शास्त्रार्थ में जीतेगा उसका मैं शिष्य बनूंगा। समय बीतने पर एक बालसाधू ने उसको शास्त्रार्थ करने के लिए अपने गुरु के पास पधारने का निमंत्रण दिया। खुश होकर यज्ञदेव उस बालसाधू के साथ उनके गुरु के यहाँ गया। कुछ ही देर में वह हार गया और तय किये मुताबिक उन गुरु से दीक्षा ली। एक दिन शासनदेवी ने उससे कहा, 'जिस प्रकार चक्षुवाला मनुष्य भी प्रकाश के बगैर नहीं देख सकता, उसी प्रकार जीव ज्ञानी होने पर भी शुद्ध चारित्र के बिना मुक्ति नहीं पा सकता है।' ऐसी वाणी सुनकर यज्ञदेव मुनि अन्य सर्व यतियों की भाँति शुद्ध चारित्र पालने लगे। यज्ञदेव के साधू बनने के कारण उनकी स्त्री विरहवेदना न सह पाई, इसलिये यज्ञदेव को वश करने के लिए तप के पारणे के दिन यज्ञदेव पर जादू-टोना किया। यज्ञदेव का शरीर दूबला पड़ता गया और मृत्यु पाकर स्वर्ग को गया। उसकी स्त्री भी यह दुःख सहन न कर पाई और ज्ञान होते ही वह भी दीक्षा ग्रहण करके स्वर्ग पधारी। लेकिन अपने-संसारीपने के पति ने भी साधुता ग्रहण की थी पर उसके उपर वशीकरण फेंका था - इसकी गुरु के पास जाकर आलोचना न की। यज्ञदेव का जीव स्वर्ग से राजगह नगर में धनसार्थवाह की चिलाती नामक दासी के उदर से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम चिलाती पुत्र रखा गया। यज्ञदेव की स्त्री का जीव भी स्वर्ग से चिलाती दासी की सेठानी याने धनसार्थवाह की स्त्री सुभद्रा की कोख से पांच पुत्रों के बाद छठ्ठी सुसुमा नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। धनसार्थवाह ने अपनी पुत्री की रक्षा के लिए चिलाती पुत्र को रखा। सुसुमा और चिलातीपुत्र साथ साथ खेलते लेकिन कोई कारण से सुसुमा रोने लगती तो चिलातीपुत्र उसके गुप्तांग पर अपना हाथ रखता तो सुख पाकर जिन शासन के चमकते हीरे . १०४
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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