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________________ तीन दिन बीत चुके । उसके कई कर्मों का नाश हो चुका था। धनावह श्रेष्ठी बाहरगाँव से लौटे। उन्होंने चन्दनबाला को देखा नहीं । जिससे उन्होंने पत्नी को पूछा, 'चन्दनबाला कहाँ गई है?' तब सेठानी ने कहा, 'वह तो लड़को के साथ घूमती-फिरती है।' इस प्रकार सच बात छुपायी। एक वृद्ध दासी ने सेठ को चुपके से आकर मूला तथा चन्दनबाला की सब हकीकत बतायी और दिखाया कि चन्दनबाला को कहाँ रखा गया है। धनावह सेठ ने स्वयं जाकर द्वार खोला। धनावह ने बेड़ी से बंधी हुई, सर मुण्डित और अश्रुभरी आँखोंवाली चन्दनबाला को देखा और ढाढ़स बंधाकर उसे स्वस्थ होने को कहा। उसे भूख से तृप्त करने के लिए रसोईघर में पड़े हुए दलहन जाकर दिये और उसकी बेडी खोल सके ऐसे लुहार को लेने चल दिये। ___ चन्दनबाला सोचती है, कैसे कैसे नाटक मेरे जीवन में आये! मैं राजकुमारी - किन संयोगो से बजार में बिकी - कर्मयोग से कुलवान सेठ ने खरीदा। कैदी की भाँति बेड़ीयों के साथ तहखाने में कैद हुई - तीन दिन के उपवास हुए। अब पारणा हो सकता है पर कोई तपस्वी आये और अठ्ठम के पारणे पर उसे भोजन - भिक्षा देकर व्रत खोलूं तो आत्मा को आनंद होगा। कोई अतिथि आये, उसे देने के पश्चात् ही मैं भोजन करूंगी, अन्यथा खाऊँगी ही नहीं।' __यों विचार कर रही है, उतने में भिक्षा के लिए घूमते घूमते श्री वीर भगवान वहाँ आ पहुँचे। उनका अभिग्रह था कि यदि कोई स्त्री चौखट पर बैढी हो; उसका एक पैर घर के अन्दर और एक पैर घर के बाहर हो, जन्म से वह राजपुत्री हो पर दासत्व पाया हो, पाँव में बेड़ी पड़ी हो, सर मुण्डन किया गया हो व रुदन करती हो - ऐसी स्त्री अठ्ठम के पारणे पर सूप के कौने से यदि मुझे भिक्षा काल व्यतीत हो जाने के बाद दलहन मुझे भिक्षा में दे तो उससे मुझे पारणा करना है।' ऐसे अभिग्रहवाले वीर प्रभु को पधारे देखकर प्रसन्न होकर वह कहने लगी; 'हे तीनों जगत के वंदनीय प्रभु! मेरे उपर प्रसन्न होकर, यह शुद्ध अन्न स्वीकार करके मुझे कृतार्थ करिए।' अपने अभिग्रह के १३ वचन में से १ वचन कम याने अभिग्रह के वचन सब तरह से पूर्ण हो रहे थे लेकिन एक रुदन की अपूर्णता देखकर प्रभु वापिस लौटने लगे। यह देखकर चन्दनबाला स्वयं को हीनभाग्य समझकर जोर से रुदन करने लगी। वीर भगवान ने रुदनध्वनि सुनकर अपना अभिग्रह पूर्ण हुआ माना और दलहन की भिक्षा का स्वीकार किया ही था कि तुरंत ही देवताओं ने आकर बारह करोड़ सुवर्णमुद्राओं की वृष्टि की। उसी समय चन्दनबाला की लोहे की बेड़ीयाँ टूट गई और उसके सुन्दर आभूषण बन गये। आकाश में देवदुर्दुभि बजने जिन शासन के चमकते हीरे . १०२
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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