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प्रतिक्रमी, पच्चखाण पालकर गोचरी (आहार) लेने बैठे। उस समय साधू के रूपवाले देव ने कहा : आपने साधू की वैयावच्च करने का नियम किया है, फिर भी आप ऐसा करे बिना अन्न क्यों ले रहे हो?' नंदिषेण के पूछने पर उसने बताया कि नगर के बाहर एक रोगी साधू है । उसे शुद्ध जल चाहिए।' यह सुनकर शुद्ध जल लेने के लिये नंदिषेण श्रावक के घर गये। जहाँ जहाँ वे जाते वहाँ वहाँ वह देव-साधू जल को अशुद्ध कर देते थे। बहुत ही भटकने बाद अपनी लब्धि के प्रताप से ज्यों त्यों शुद्ध जल प्राप्त करके उस देव-साधू के साथ नंदिषेण नगर से बाहर रोगी साधू के पास गये। उन्हें अतिसार से पीड़ित देखकर, 'उनकी वैयावच्च से मैं कृतार्थ हो जाऊँगा' ऐसा मानकर उन्हें जल से साफ किया लेकिन ज्यों ज्यों साफ करते जा रहे थे त्यों त्यों बहुत ही दुर्गंध निकलने लगी। इससे वे सोचने लगे, 'अहो! ऐसे भाग्यवान साधू फिर भी ऐसे रोगवाले हैं, राजा या रंक, यति या इन्द्र कोई भी कर्म से छूटता नहीं है।' वे साधू को कंधो पर बिठाकर पौषधशाला में ले जाने के लिये चल पड़े। रास्ते में ये देव-साधु नंदिषेण पर मलमूत्र करते है, इसकी बहुत ही दुर्गंध आने पर भी बुरा नहीं मानते हैं । वे धीमे चलते हैं तो कहते हैं, 'तू मुझे कब पहुँचायेगा? रास्ते में ही मेरी मौत हो जायेगी तो मेरी दुर्गति होगी। मैं आराधना भी नहीं कर सकूँगा।'वे तेज चलते है तो कहते हैं, इस प्रकार चलेगा तो मेरे प्राण ही निकल जायेंगे, तूंने यह कैसा अभिग्रह लिया है? ऐसा सुनते सुनते भी नंदिषेण को साधू के प्रति जरा सी भी घृणा, क्रोध और द्वेष न हुआ और उन्हें उपाश्रय पर ले आये।
उपाश्रय पर लेजाकर सोचने लगे कि इन साधू को निरोगी कैसे किये जाये! मैं स्वयं योग्य चिकित्सा नहीं कर सकता हूँ ऐसा समझकर स्वयं अपनी निंदा करते हैं। देवसाधू ने जान लिया कि नंदिषेण वैयावच्च करने में मेरू समान निश्चल हैं। उन्होंने प्रकट होकर सर्व दुर्गंध समेट ली और नंदिषेण पर पुष्पवृष्टि करके कहा, 'हे मुनि! आपको धन्य है! इन्द्र ने वर्णन किया था उससे भी आप बढ़कर हो।' इस प्रकार कहकर क्षमायाचना कर देव स्वर्ग को लौट चले।
तत्पश्चात् नंदिषेण मुनि ने बारह हजार वर्ष तक तप किया और तप के अंत में अनशन प्रारंभ कर दिया। तपस्वी को वंदन करने अपनी स्त्री सहित चक्रवर्ती वहाँ आये। स्त्री की काया तथा अति सुकुमार और कोमल केश देखकर उन्होंने संकल्प किया कि 'मैं इस तप के प्रभाव से ऐसी कई स्त्रियों का वल्लभ बनूं।' वहाँ से मृत्यु पाकर वे महाशुक्र देवलोक में देवता बने । वहाँ से वे सूर्यपुरी के अंधक वृष्णि की सुभद्रा नामक स्त्री के दसवें वासुदेव नामक पुत्र हुए। वहाँ नंदिषेण के भव के संकल्प के कारण बहत्तर हजार स्त्रियों से उनका ब्याह हुआ।वे ही श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव !
जिन शासन के चमकते हीरे • ९९