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________________ ४६ -सेवामूर्ति नंदिषेण मगध देश के नंदी गाँव में सोमील नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी सोमीला नामक स्त्री थी। उन्हें नंदिषेण नामक पुत्र था। दुर्भाव्य से वह कुरूप था। बचपन में माता-पिता की मृत्यु हो गई, वह मामा के वहाँ जाकर रहा। वहाँ वह चारापानी वगैरह लाने का काम करता था। मामा की सात पुत्रियाँ थी। सात में से एक का ब्याह तेरे साथ करूंगा' - ऐसा मामा ने नंदिषेण को कहा, जिससे वह घर का काम करने लगा। एक के बाद एक सातों बेटियों ने कुरूप नंदिषेण से शादी करने का इनकार कर दिया और कहा, 'जोर-जुल्म से नंदीषेण से शादी करवाओगे तो मैं आत्महत्या करके मर जाउँगी,' - ऐसा हरेक पुत्री ने कहा। इससे यहाँ रहना ठीक नहीं है, ऐसा मानकर खेद व्यक्त करने लगा कि मेरे दुर्भाग्य से मेरे कर्मों का उदय हुआ है, इस प्रकार के जीवन जीने से मर जाना बेहतर है। सोच विचार करके वह मामा का घर छोड़कर रत्नपुर नामक नगर में गया। वहाँ स्त्री-पुरुष को भोग भुगतते हुए देखकर अपनी निंदा करते हुए कहने लगा, 'अहो! मैं कब ऐसा भाग्यवान् बनूंगा?' वह बन में जाकर आत्महत्या करने का विचार करने लगा । वहाँ कायोत्सर्ग करते हुए मुनि ने उसको अटकाया। उनको प्रणाम करके नंदिषेण ने अपने दुःख की सब कहानी मुनि को सुनाई। मुनि ने ज्ञान से उसका भाव जानकर कहा, 'हे मुग्ध ! ऐसा खोटा वैराग्य मत ला। मृत्यु से कोई भी मनुष्य करे हुए कर्मों से छूटता नहीं हैं । शुभ अथवा अशुभ जो कुछ कर्म किये हो वह भुगतने ही पड़ते हैं। श्री वीतराग परमात्मा भी धर्म से ही अपने पूर्व के पापकर्मों से छूटते है। इसलिए तू आजीवन शुद्ध धर्म ग्रहण कर जिससे तू अगले भव में सुखी हो पायेगा।' ऐसे उपदेश से वैराग्य पाकर, नंदिषेण ने गुरु से दीक्षा व्रत ग्रहण किया और विनयपूर्वक अध्ययन करने लगे और धर्मशास्त्र में गीतार्थ बने । उन्होंने आजीवन छठ्ठ के पारणे से आयंबिल और लघु, वृद्ध या रोगवाले साधुओं की सेवा (वैयावच्च) करने के बाद ही भोजन करने का अभिग्रह लिया, और इस प्रकार वे नित्य वैयावच्च करने लगे। नंदिषेण की इस उत्तम वैयावच्च को अवधिज्ञान से जानकर इन्द्र ने अपनी सभा में कहा, 'नंदिषेण जैसा वैयावच्च में निश्चल अन्य कोई मनुष्य नहीं है।' एक देव ने यह बात न मानी, नंदिषेण की परीक्षा करने का विचार किया और एक रोगी साधू का रूप लिया एवं अतिसारयुक्त देह बनाई और अन्य साधू का रूप लेकर नंदिषेण जहाँ ठहरे थे उस उपाश्रय पर पहुँचे। वहाँ नंदिषेण भिक्षा लाकर इर्यापथिकी जिन शासन के चमकते हीरे • ९८
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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