________________
४५
६५
दोहा-पाहुड
हे जीव ! जो खातो-पीतो (भोगो भोगवतो) तुं शाश्वत मुक्ति मेळवे एवं होय तो ऋषभ भगवाने सकळ इन्द्रिय-सुखोनो त्याग शा माटे को हतो?.
६३ हे मूढ ! आ देह-णं महिला तने त्यां सुधी सतावे छे ज्यां सुधी तारु चित्त निरंजन परम तत्त्व साथे एकाकार थतुं नथी.
६४ __ सर्व विकल्पोने हणनारुं ज्ञान जेना मनमां स्फुरतुं नथी, सघळी वस्तुने धर्म कहेतो ते शाश्वत सुख केवी रीते मेळवे ?
जेना सकळ चिंताओथी मुक्त चित्तमां परमात्मा वसे छे, ते आठे कर्म हणीने परम गति पामे छे.
हे मूढ ! गुणनिलय आत्माने मूकीने बीजानुं ध्यान जे धरे छे तेवा अज्ञानभरेलाने केवळज्ञान क्याथी थाय ?
६७ आत्मा ज मात्र दर्शन अने ज्ञानरूप छे, बीजं सघळु तो व्यवहार . हे । जोगी ! जे त्रणे लोकना साररूप छे एवा ते एकनुं ज ध्यान धरवू जोईए.
६८ आत्मा ज दर्शन-ज्ञानमय छे, बीजुं बधुं तो प्रपंच. ए जाणीने हे योगीओ ! मायाजाळ छोडो.
६९ जगतिलक (जगभूषण) आत्माने मूकीने जे परद्रव्य(पुद्गल)मां रमण करे छे ते अज्ञ (मिथ्याज्ञानी) छे. मिथ्यादृष्टिने माथे शुं शींगडा होय छे ?
७० जगतिलक आत्माने मूकीने हे मूढ ! अन्यनुं ध्यान न धर. जेणे मरकतमणिने जाण्यो छे तेने काचनी कई गणतरी ?
७१ हे मूर्ख ! शुभ परिणाम (शुभ भाव)थी धर्म अने अशुभथी अधर्म थाय छे. ए बन्नेनो त्याग करनार जीव जन्म (भव-भ्रमण) पामतो नथी. ७२