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________________ आदि- प्रकटितगुणवारं भव्यसारं प्रमाणं जिनपतिवरनत्वा सद्गुरुं चारुचित्रम् । कुलकमलरविं श्रीस्तम्भनस्थं हि पार्थं, कियदपि .... मत्यै वच्म्यहं प्रश्नजालं ॥ १ ॥ अन्त- सत्स्त्रीत्व कुहबोधयापमनं कक्षा कमुक्तं क्षयः का दारिद्र्यसमुद्धरा भवति सद्राणया नितान्तं किल । ? स्वं सम्बोधय भव्यलोक हरिद.... चक्रेन सुखं केनेयं विहिता च जल्प कविसत्प्रश्नावली साधुना ॥ १६१ ॥ ॥ साधुसुन्दरेण ॥ यदिह किमपि कान्तं श्लिष्टतो दुर्विशिष्टं मयि तदधिकहर्षं सत्प्रसत्तिं विधाय । किल विगलितजालैः सद्गुणालीविशालैः बुधवरनिवहैः संशोधनीयं नितान्तम् ॥ १६२ ॥ इसकी एक मात्र प्रति श्रीहर्षचन्द्रसूरि पार्श्वचन्द्रसूरि गच्छ ज्ञान भण्डार, खम्भात में प्राप्त है। पत्र संख्या १५ है । अत्यन्त अशुद्ध प्रति है । भण्डार के व्यवस्थापकों ने इसकी जीरोक्स कॉपी भिजवाई है, वह भी स्पष्ट नहीं है । भण्डार के व्यवस्थापकों को हार्दिक धन्यवाद । प्रति- परिचय प्रस्तुत सम्पादन में तीन प्रतियों का उपयोग किया गया है। जिनका परिचय इस प्रकार है: (१) यह प्रतिलिपि महोपाध्याय विनयसागर संग्रह की है । क्रमांक है - ७८९ । प्रति की साईज है २५.८x१०.५ से.मी है । पत्र संख्या १९, पंक्ति २०, प्रति पंक्ति अक्षर ६८ है । लेखन संवत् नहीं दिया गया है किन्तु १७वीं शती की ही है । लेखन प्रशस्ति भी नहीं है, केवल 'मेदनीतटेलिखितं ' लिखा है । ग्रन्थाग्रन्थ १५०० दिया है। प्रति शुद्ध है। मूल और टीका का पाठ इसी आधार से दिया गया है। ४५
SR No.002344
Book TitlePrashnottaraikshashti Shatkkavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages186
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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