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श्रीविक्रमाख्ये नगरे गरिष्ठः, प्रज्ञाप्रपञ्चेऽस्तितमां पटिष्ठः । मन्त्रप्रयोगे प्रथितप्रतिष्ठः, श्रीकर्मचन्द्रसचिवो वरिष्ठः ॥ २ ॥ अन्त - विक्रमतो वसुवह्निक्षितिपतिवर्षे तथाऽऽश्विने मासि । विजयदशम्यामयमिति विनिर्मितो हेमरत्नेन ॥ १ ॥
कवि हेमरत्न रचित अन्य कृति गोरा बादिल चरित्र है । जिसकी रचना १६४५ में इतिहास प्रसिद्ध दानवीर भामाशाह के भाई ताराचन्द कावड़िया अनुरोध पर सादड़ी में की गई है । यह कृति स्वलिखित प्रति के आधार से राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित हो चुकी है ।
३. प्रश्नप्रबोधकाव्यालङ्कार स्वोपज्ञ टीकासह - जिनवल्लभगणि के प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य के अनुकरण पर ही खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के आचार्य जिनहर्षसूरि सन्तानीय उपाध्याय सुमतिकलश के शिष्य विनयसागरोपाध्याय ने विक्रम संवत् १६६७ दिल्ली में स्वोपज्ञ टीका के साथ इसकी रचना की है। इसकी कर्ता के द्वारा स्वयं लिखित प्रति प्रवर्तक कान्तिविजयजी संग्रह, बड़ौदा में विद्यमान है। प्रति समक्ष न होने के कारण इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा जा रहा है ।
४. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य स्वोपज्ञ टीकासह - जिनवल्लभसूरि के प्रश्नोत्तरैषष्टिशतक काव्य के अनुकरण पर ही इसकी रचना की गई है। इसके प्रणेता खरतरगच्छीय श्री जिनभद्रसूरि शाखा के वाचनाचार्य पद्ममेरु, वाचनाचार्य मतिवर्द्धन, वाचनाचार्य दयाकलश, वाचनाचार्य श्री अमरमाणिक्य के शिष्य उपाध्याय साधुकीर्ति के शिष्य उपाध्याय साधुसुन्दर हैं । उपाध्याय साधुसुन्दर व्याकरण और कोष साहित्य के उद्भट विद्वान् थे । उक्तिरत्नाकर, धातुरत्नाकर (व्याकरण) और शब्द रत्नाकर (कोष) आदि मौलिक कृतियाँ प्राप्त हैं। इनका साहित्य सर्जना काल १६७० से है । इस कृति में गतागतं जाति, वर्द्धमानाक्षर जाति, आदि जातियाँ भी प्राप्त हैं और श्लोक के अन्त में उत्तर भी पृथक से दिया गया है। इसकी श्लोक संख्या १६१ है । इस पर स्वोपज्ञ टीका भी प्राप्त है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:
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