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रचना प्रशस्ति- इति श्री खरतरगच्छाधिराजश्रीमच्छ्रीजिनहंससूरिसूरीश्वर
शिष्य श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायश्रीपद्मराजोपनिर्मिता स्वोपज्ञ श्रीपार्श्वजिनयमकस्तववृत्तिः समाप्ता
विद्वद्भिर्वाच्यमाना चिरं नन्दतात् श्रेयः॥ यह कृति भी मेरे द्वारा सम्पादित होकर 'श्रीभावारिवारणपादपूर्त्यादिस्तोत्रसंग्रह:' के नाम से सुमति सदन, कोटा से प्रकाशित है। ३.जिनस्तुति दण्डक (छन्दोमय) टीका - कलिकाल केवली श्रीजिनचन्द्रसूरि के शिष्य भुवनहिताचार्य (संवत् १३७४ में दीक्षित) ने संग्राम दण्डक छन्द में जिनस्तुति की रचना की थी। उस पर पद्मराजगणि की टीका प्राप्त है। टीका का मङ्गलाचरण इस प्रकार है:
प्रणयविनयपूतस्वान्तकान्तप्रभूतक्षितिपति-पुरुहूत-श्रेणिभिर्योभिनूतः। शिवपथरथसूतस्तात्सकल्पद्रुभूतः;
सततमनभिभूतः श्रेयसे नाभिसूतः॥१॥ भुवनहितसूरिविरचित-रुचिर-गुणोद्दण्डदण्डकस्तुत्याः।
व्याख्या विदधामि गुरो, प्रसादतो मुग्धबोधार्थम् ॥ २॥
यह टीका भी मेरे द्वारा सम्पादित होकर श्रीभावारिवारणपादपुर्त्यादिस्तोत्रसंग्रहः' के नाम से सुमति सदन, कोटा से प्रकाशित पुस्तक में है। ३. गौतमगणधर स्तोत्र, स्तोत्र, संस्कृत, १७वीं
चतुर्विंशति जिन स्तोत्र (यमकालङ्कार श्रृंखलाबद्ध), स्तोत्र, संस्कृत, १७वीं, 'गा. २५', अप्रकाशित, अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर पार्श्वनाथ स्तोत्र-एकस्वरचित्र स्वोपज्ञ सावचूरि, स्तोत्र, संस्कृत, १७वीं, 'गा. ७', अप्रकाशित, आचार्यशाखा ज्ञान भण्डार, बीकानेर सर्वजिन स्तुति-दण्डक टीका (रुचितरुचि), स्तोत्र, संस्कृत, १६४४ फलवर्धी, आदि-श्रीनाभिजातं प्रणिपत्य भावतः...', विनय. प्रतिलिपि उपसर्गहर स्तोत्र बालावबोध, स्तोत्र, मूल स्तोत्र श्री भद्रबाहु स्वामी का है उस पर पद्मराजगणि ने राजस्थानी भाषा में बालावबोध लिखा है। संस्कृत, १६४६ जैसलमेर, 'अन्त–बालानामवबोधाय...', अप्रकाशित, जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार, जैसलमेर
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