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________________ वीरं भवारिभयदावकरालकीला संभार-संहरणतुंगतरङ्गतोयम्॥१॥ मूल का अन्त- एवं श्रीजिनवल्लभप्रभुकृतस्तोत्रान्त्यपादग्रहात्, कृत्वा ते समसंस्कृतस्तवमहं पुण्यं यदापं मनाक् । संसेव्यक्रमपद्मराजनिकरैः श्रीवीर! तेनार्थये, नाथेदं प्रथय प्रसाद विशदां दृष्टिं दयालो! मयि ॥ ३०॥ टीकान्त- खरतरगणे नवांगी-वृत्तिकृतामभयदेवसूरीणाम्। वंशे क्रमादभूवन्, श्रीमज्जिनहंससूरीन्द्राः॥१॥ तेषां शिष्यवरिष्ठाः, समग्रसमयार्थनिष्ककषपट्टाः। श्रीपुण्यसागरमहो-पाध्याया जज्ञिरे विज्ञाः॥२॥ तेषां शिष्यो विवृत्तिं, वाचकवरपद्मराजगणिरकरोत् । भावारिवारणान्तिम-चरणनिबद्धस्तवस्यैताम् ॥ ३॥ ग्रहकरणदर्शनेन्दु (१६५९) प्रमितेब्दे चाश्विनासितदशम्यां। श्रीजेसलमेरुपरे, श्रीमज्जिनचन्द्रगरुराज्ये॥४॥ अत्र यदुक्तमयुक्तं, मतिमान्द्यादनुपयोगतश्चापि। तच्छोध्यं धीमद्भि, प्रसादविशदाशयैः सद्भिः॥५॥ इसकी तत्कालीन लिखित एकमात्र प्रति के आधार से मेरे द्वारा सम्पादित होकर यह कृति 'श्रीभावारिवारणपादपूर्त्यादि-स्तोत्रसंग्रहः' के नाम से सुमति सदन, कोटा से प्रकाशित है। २. पार्श्वनाथ लघु स्तोत्र (यमकमय) स्वोपज्ञ टीका सहित: आद्यन्त इस प्रकार है:मूलादि- समानो! समानोऽसमानो समानो, महेलाऽमहेला महेला महेला। सिताराऽसितारासितारासितारा वधीरावधीरावधी रावधीरा ॥१॥ मूल का अन्त- इत्थं मया परमया रमया प्रधान स्तोत्रं पवित्रयमकैर्विहितं हितं ते। पार्श्वप्रभो! त्रिभुवनाद्भुतपद्मराजदिन्दीवरच्छवितनो! वितनोतु सातम्॥६॥
SR No.002344
Book TitlePrashnottaraikshashti Shatkkavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages186
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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