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काव्यशास्त्र के समस्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था किन्तु उनमें चित्रकाव्यों के कतिचित् भेद ही प्राप्त होते हैं । रुद्रट ने काव्यालङ्कार में कुछ अधिक भेदों का विस्तार से वर्णन किया है। काव्यशास्त्रों के अतिरिक्त उस समय चित्रकाव्य के अनेक भेद-प्रभेद संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध होंगे किन्तु उनका एक स्थान पर संकलन नहीं होगा। इनके भेदों-उपभेदों का एक स्थान पर संकलन विदग्धमुखमण्डन में ही प्राप्त होता है। अतः सम्भव है कि कवि जिनवल्लभ ने विदग्धमुखमण्डन को आधार बनाकर या आश्रय लेकर उसमें से चित्रकाव्य के अनेक भेदों का संकलन कर इस काव्य की रचना की हो! परवर्ती काव्यशास्त्र
परवर्ती काव्यशास्त्रियों में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र, वाग्भट्ट, . नरेन्द्रप्रभसूरि, विश्वनाथ आदि ने भी चित्रकाव्य के सम्बन्ध में लिखा है:
आचार्य हेमचन्द्र (१२वीं-१३वीं शती) ने काव्यानुशासन अध्याय ५, सूत्र ५ में स्वर, व्यञ्जन, स्थान, गति, आकार, नियम, च्युत, गूढादि भेद बतलाते हुए इनके उदाहरण भी दिए हैं। गति के अन्तर्गत गत-प्रत्यागत, खड्ग, मुरज, बन्ध आदि, अर्द्धमात्रच्युत, बिन्दु च्युत, क्रिया गूढ़, कारक गूढ, सम्बन्ध गूढ, पाद गूढ, प्रश्नोत्तर आदि का भी समावेश किया है।
__ मन्त्री वाग्भट्ट (बाहड़, १२वीं सदी) ने वाग्भटालङ्कार के चतुर्थ परिच्छेद में पद्य ७-१५ तक में चित्रकाव्यों के लक्षण देते हुए उनके कुछ उदाहरण भी दिये है। जिनमें से प्रमुख है:- गोमुत्रिका, षोडषदल पद्मबन्ध, एकस्वर, मात्राच्युतक, बिन्दु च्युतक, व्यञ्जन स्वर, व्यन्जन च्युतक और भंगपद के लक्षण देकर उदाहरण दिए है।
नरेन्द्रप्रभसूरि (१३वीं शती) ने सातवें तरङ्ग में लिखा है:लिप्यक्षराणां विन्यासे खड्ग-पद्मादिरूपता। यस्मिन्त्रालोक्यते चित्रा तच्चित्रमिति गीयते ॥ २१ ॥ इसके अन्तर्गत खड्ग, पद्म वर्णन मात्र के उदाहरण मात्र दिए है।
विश्वनाथ (१४वीं शती) ने साहित्य दर्पण के दशम परिच्छेद में लिखा है:
पद्माद्याकारहेतुत्वे वर्णानां चित्रमुच्यते॥१६॥