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इस असाधारण भाषा को काव्योचित विशेषोक्ति या अलङ्कार समन्वित विशेषोक्ति कहा जा सकता है। वाणी में सौन्दर्य और चारुता अलङ्कार द्वारा ही उत्पन्न होती है।
काव्यशास्त्रियों ने अलङ्कारों के मुख्यत: दो भेद किए हैं- शब्दालङ्कार, और अर्थालङ्कार-चित्रकाव्यों/चित्रालङ्कार की गणना शब्दालङ्कार के अन्तर्गत ही की जाती है, क्योंकि यह अर्थ का विषय न होकर शब्द का ही विषय है। चित्रकाव्य शब्दों में चमत्कार उत्पन्न करते हैं। चमत्कार मूलक अलङ्कारों का प्रतिभा और उत्कर्ष बुद्धि के व्यायाम से अधिक समबन्ध है। इसका नियोजन भी मुख्यत: मस्तिष्क की क्रियाओं तक ही आश्रित है। इस श्रेणी के अलङ्कार मन में कौतुहल उत्पन्न कर वृत्तियों को जागरुक बनाते हैं। अलङ्कार का कार्य भावों को उद्दीप्त करना है। सामान्य तथ्य भी अलङ्कार युक्त होकर मनोहर रमणीय हो जाते हैं जो चमत्कार युक्त काव्यों का तो कहना ही क्या? - चित्रकाव्य शब्दगत होने के कारण वे चाहे एकाक्षर हों, व्यक्षर हों, त्रिरक्षर हो, चतुरक्षर हो या अष्टदल-शतदल-सहस्त्रदल कमल युक्त हों। वे हृदय एवं मस्तिष्क को झंकृतकर रमणीयता को अभिव्यक्त करते हैं।
___ यद्यपि रस निष्पत्ति की दृष्टि से कुछ लोग चित्रकाव्य को उच्च कोटि का काव्य नहीं मानते हैं। यह कुछ अंशों में सत्य है। मुक्तक चित्रकाव्यों में सम्भवतः रसास्वादन न होता हो किन्तु 'रामचरिताब्धिरत्नम्' के समान शब्दों में चमत्कार पैदा करके रसास्वादन भी कराते हैं।
अलङ्कार शास्त्र का बीजारोपण भरतमुनि के पूर्व ही हो चुका था। राजशेखर ने काव्यमीमांसा के प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में लिखा है कि 'चित्राङ्गद ने चित्रकाव्य विषयक ग्रन्थ की रचना की थी।' भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में केवल चार ही अलङ्कारों का उल्लेख मिलता है, चित्रालङ्कार का नहीं। अग्निपुराण (अध्याय ३७४) में चित्र के प्रश्न, प्रहेलिका, गुप्तपद, च्युतपद, दत्तपद, समस्या और बन्ध ये सात भेद प्राप्त होते हैं । बन्ध के अन्तर्गत गोमूत्रिका, अर्द्धभ्रम, सर्वतोभद्र, कमल, चक्र, चक्राब्ज, दण्ड और मुरुज ये ८ भेद प्राप्त होते हैं, किन्तु इनके स्वतन्त्र रूप से लक्षण या उदाहरण प्राप्त नहीं होते हैं।
भामहा (ईस्वी पूर्व) के काव्यालङ्कार (द्वितीय परिच्छेद) में शब्दालङ्कारों का निरुपण अवश्य है किन्तु चित्रालङ्कार का विशेष उल्लेख नहीं है।