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प्रश्न अथवा उत्तरों के सम्बन्ध को खोजने के लिए टीकाकार ने पाणिनि, सारस्वत और कातन्त्र व्याकरण के कौन से सूत्रों के उदाहरण दिये हैं ? तथा कौन-से कौन-से कोशों का उपयोग किया है ? ऐसे अनेकों प्रश्नों का निश्चय करने के लिए नवीन-नवीन प्रश्न खड़े होते हैं । उस समय पूज्य 'दादा' (परम पूज्य आचार्य श्री विजयअशोकचन्द्रसूरिजी महाराज) जिनको नाना महाराज (छोटे महाराज) कहकर बुलाते थे वह मुनि श्री सुयशचन्द्रविजयजी विचार में पड़ जाते थे, किन्तु श्रान्त नहीं होते थे । उस समय भी उस पाठ-सूत्रादि को ढूंढने के लिए पुस्तकें टटोलते रहते और जब प्रमाणभूत पाठ मिल जाता, उस समय उनके मुख की मुस्कुराहट देखने लायक होती थी । यह निश्चित है कि अनेक पुस्तकों को पढ़ना, खोजना, पाठभेद लिखना आदि सर्व कार्यों के लिए पंन्यास श्रीचन्द्रविजयजी महाराज और उनके बन्धु मुनि श्री सुजसचन्द्रविजयजी महाराज ने खूब परिश्रम किया है । उनके पिताजी महाराजा मुनि श्री सत्यचन्द्रविजयजी दूसरे अन्य सभी कार्य सम्भाल लेते थे । सहवर्ती प्रत्येक साधु अपनी-अपनी रीति से सहयोग देते रहते थे, यह भी इस समय में स्मरण में आए बिना नहीं रहता ।
वृद्धावस्था में भी पद-पद पर संशोधन कार्य के लिए सतत प्रेरणा और मार्गदर्शन देने वाले, ग्रन्थ के भाव को उजागर करने वाले, स्वयं के अनुभव ज्ञान से समस्याओं का समाधान करने वाले, निरन्तर कार्यरत रहने वाले, विस्तृत भूमिका लिखने वाले, संक्षेप में कहें तो इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण सहभागी साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागरजी भी बहुत-बहुत धन्यवाद के पात्र हैं ।
दोनों पूज्यश्री के समय से ही ज्ञान सम्बन्धी कार्यों में सहयोगी बनने वाले श्री विलेपार्ले श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, व्यवस्था सम्भालने वाले श्री रांदेर रोड जैन संघ, सूरत तथा एम.एस.पी.एस.जी. चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर और मुद्रण कार्य करने वाले भरत ग्राफिक्स को भी कैसे भूल सकते हैं ।
अन्त में इस प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक' के पठन-पाठन से ज्ञानानुरागी जीव इन प्रश्नों के उत्तरों के समान संसार में आत्मा जिन कारणों से भ्रमण कर रहे है उन कर्मों के प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर कर्मरहित बनकर शीघ्र ही शिवसुख प्राप्त करें, यही शुभेच्छा है ।
जिनशासन शणगार
पूज्य श्री विजयचंद्रोदयसूरिजी म, के संवत् २०६५ माघ वद १ सोमवार
गुरुबन्धु सूरिमंत्र आराधक पू.आ.म. श्री विजयकस्तूरसूरिजी म.
पू.आ. श्री विजयअशोकचन्द्रसूरीश्वरजी म. का जन्म दिवस
. के पादपद्मरेणु 4 विजयसोमचन्द्रसूरि ।