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श्रीचिन्तामणि-पार्श्वनाथाय नमः । श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूर-चंद्रोदय-अशोकचन्द्रसूरिभ्यो नमः ।
(सम्पादकीय
जगत में विविध प्रश्नों के बिना भी उत्तर प्राप्त होते हैं । कितने ही उत्तर रहित होने पर भी मात्र प्रश्न ही होते हैं । कभी प्रश्न कुटिल होते हैं, उत्तर सहज होते हैं । कभी उत्तर का खोजना कठिन होता है, तो कभी प्रश्न सरल होते है।
ऐसा होने पर भी हजारों वर्षों से यह परम्परा चलती आ रही है । स्वयं श्री वीर प्रभु ने अन्तिम समय में केवल उत्तर स्वरूप ही उत्तराध्ययन सूत्र का देशना के रूप में प्रतिपादन किया था । उस समय के जगत् के लोग भी हृदय की प्रसन्नता के लिए प्रहेलिका, पादपूर्ति, श्लोकपूर्ति, समस्यापूर्ति आदि का निर्माण करते थे । शब्दगुप्ति और क्रियागुप्ति आदि अनेक प्रकार के प्रयोग करते थे । संस्कृत-प्राकृत काव्यों में चली आ रही यह पद्धति अपभ्रंशगुजराती साहित्य में भी चालू रही । यह भी कहा जा सकता है कि इनके बिना रचना अपूर्ण प्रतीत होती है ।
आज भी समस्यापूर्ति, रिक्तस्थान की पूर्ति, प्रहेलिका आदि रूप में यह प्रवृत्ति सब जगह प्रचलित है । प्रश्न पूछने वाले अत्यन्त आत्म-विश्वास से समस्या पूछते हैं, सामने वाले जब असमन्जस में पड़ जाते हैं, तब पूछने वाले हृदय में मुस्कराते हैं । बहुत बार तो उत्तर के निकट पहुँचने पर भी सत्य उत्तर नहीं मिलता है । उस समय का आनन्द अनोखा होता है यदि जो ऐसा करते हुए उत्तर प्राप्त हो जाता है तो उत्तर देनेवाले के मुख की मुस्कुराहट देखने लायक होती है- 'देखो तुम्हारी समस्या का कैसा उत्तर दिया है ।'
ऐसे ही प्रश्न-उत्तर आज से ८९८ वर्ष पहले खरतरगच्छीय श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज ने ज्ञान का अनुपम क्षयोपशम होने पर अभूतपूर्व पद्धति से इस प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक' नामक ग्रन्थ में सम्मिलित किये हैं । जब एक के बाद एक श्लोकों को पढ़ते जाते हैं तभी ज्ञान होता है कि एक-एक श्लोक में कैसी-कैसी विशेषताएँ ग्रन्थकार ने सम्मिलित की है । उत्तरों की विशेषता वृत्तिकार महोपाध्याय श्री पुण्यसागरजी म. की टीका न होती तो कभी-कभी जानना भी कठिन हो जाता कि इसका आशय क्या है ? और कवि क्या कहना चाहता है ? चक्रबद्ध काव्य का रहस्य तो वास्तव में बुद्धि और प्रतिभा के बिना खोजना भी कठिन होता है ।