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ध्यानादिभिः, जल-चन्दन-पुष्प-धूप-दीप-नैवेद्य-फल-अक्षतादिभिश्च भवभ्रमण - जन्म-जरा - मरण-दुःख - दमयित्रीं श्रीजिनेन्द्र-जिनेश्वरदेवानां भक्तिभावपूर्वकं दर्शनं वन्दनं पूजनञ्च क्रमशः चकार ।। ५८ ।।
* हिन्दी अनुवाद-श्रोजिनेश्वर भगवान के चरणकमलों के अनुरागी ऐसे चक्रवर्ती भरत अन्य समस्त
राजकीय कार्यों को सचिव प्रादि पर छोड़कर स्वयं त्रिकाल भक्तिभावपूर्वक श्रीजिनेश्वर भगवान के दर्शन, वन्दन एवं पूजनादि करते थे। विविध प्रकार के तीर्थजल, चन्दन, सुगन्धित सुमनों, सर्वत्र प्रसरणशील सुरभित धूप, शुद्ध घृतमिश्रितदीपक, मधुर मिष्ठान्न-नैवेद्य, उत्तम फल तथा अखण्ड अक्षतादि से पूर्ण श्रद्धा-विश्वास-आस्था के साथ सांसारिक समस्त दुःखविनाशिनी श्रीजिनेश्वर की भक्ति, पूजा-पूजनादि में नित्य मग्न-लीन रहते थे ।। ५८ ।।
[ ५६ ] - मूलश्लोकःइदं कि नो सत्यं किमु न स तदाष्टापदगिरिः , न कि नित्यं तीर्थं जिनकृतकृतान्ते निगदितम् । सुराधीशास्तस्मिन् किमु न जिनपूजां विदधिरे , प्रभाभूतां पूजां किमु न मनुते मीलितहशा ॥ ५६ ॥
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