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________________ [ ४६ ] 0 मूलश्लोकःनिशम्यैवं वाचं करुणहृदयोऽप्यादि पुरुषः , सुधा सारा वाचा शमितविपदा तं कथितवान् । श्रुतौ दानं सर्वं शृणु सुकृतिसारं निगदितं , पुरा ये! दत्तं भ्रमति हतभाग्यं प्रतिपदम् ॥ ४६ ॥ + संस्कृतभावार्थ:-श्रीभरतचक्रवत्तिनो दयावचनमिदं श्रुत्वा श्रीपादोश्वरदेवेन सुधासारवर्षिण्या विपत्तिहारिण्या वाण्या भरतो निगदितः । हे भरत ! शृणु आगमशास्त्रेषु सर्वधर्मरहस्यं दान मनेकधा स्फुटीकृतम् । यः पूर्वं दानं न कृतं ते भाग्यहीना भवन्ति, संसारे च प्रतिपदं त एव दुःखिनो भूत्वा भवन्ति ।। ४६ ।। * हिन्दी अनुवाद-श्री भरत चक्रवर्ती के दीनवचनों को सुनकर श्री आदीश्वर-ऋषभदेव भगवान् ने सुधावर्षी विपत्तिहारिणी वाणी से भरत चक्री को कहा कि-हे भरत ! सुनो ! अागमशास्त्रों में समस्त धर्मों का सार दयाधर्म को कहा गया है । जिन्होंने पहले दान नहीं दिया, वे इस भव में भाग्यहीन हैं तथा संसार में दुःखित पीड़ित होकर जीवन-यापन कर रहे हैं ।। ४६ ।। श्रीजिन.-५
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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