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+ संस्कृतभावार्थ:-हे भगवन् ! वयमपि सतां मुखारविन्दैः जैनागमाभ्यासेन च जानीमो यद् राज्ञोऽशनादिकसाधुयोग्यं नैव भवति । भवान् एव वदतु यत् मादृशो जनाः संसारसागरात् कथं तरेयुः ? पञ्चमकेवलज्ञानत्वात् त्रिकालज्ञानी-त्रिलोकदर्शी-सर्वज्ञप्रभुरपि वदन्तीति सत्यम् न कल्पते साधवे तत् । चक्रवर्ती अकथयत्-हे जगत्गुरो ! प्रयासमन्तरा अर्थात् कष्ट रहितमुपायं कथयतु भवसिन्धु पारं कर्तुम् ।। ४८ ।।
* हिन्दी अनुवाद-हे भगवन् ! हम जैसे अज्ञानी व्यक्ति भी साधु-महात्माओं की-सन्तमहापुरुषों की प्रवचनवाणी तथा जैनागम के अभ्यास से यह जानते हैं कि राजा का अन्न, वस्त्र आदि साधु-मुनि को ग्राह्य कल्प्य नहीं है । ऐसा होने पर हम आपकी सेवा से रहित रहकर इस संसारसागर को कैसे पार कर सकेंगे ? केवलज्ञानी सर्वज्ञ-विभु ने कहा कि तुम्हारा कथन यथार्थ है। पुनः सम्राट ने निवेदन किया कि हे विश्वगुरो ! संसार-सागर से पार पहुँचने का कोई बिना प्रयास अर्थात् कष्ट रहित उपाय बताइये ।। ४८ ।।
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