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________________ मस्तकेन देवदुर्लभं त्रिलोकनाथादीश्वरप्रभोः चरणकमलयुगलं नत्त्वा, प्रभोरागमनेन सजातानन्दाश्रुजलेन भगवतश्चरणयुगलं प्रक्षालितवान् । तदनन्तरं बद्धाञ्जलिः प्रोवाच"हे भगवन्तः ! भवन्तस्तु न किमपि आहारादिकं वस्त्रादिकं वा गृह्णन्ति मादृशो जनात् । एवं सति कथमस्माकं कल्याणं स्यादिति भावः' ।। ४७ ।। * हिन्दी अनुवाद-परम विनीत सम्राट श्रीभरतचक्रवर्ती ने निजमस्तक झुकाकर पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास से गुरुओं के गुरु त्रिलोकनाथ श्री आदीश्वर प्रभु के चरणकमलों में सादर वन्दनाञ्जलि अर्पित करके, प्रभु के शुभागमन से प्रादुर्भूत अानन्द की अश्रुधारा से उनके चरणकमल प्रक्षालित किये तथा अत्यन्त विनम्र भाव से कहा कि-हे प्रभो! आप तो हमारे जैसे पुरुषों के घर का कुछ भी ग्रहण नहीं करते तो भला हमारा उद्धार कैसे संभाव्य है ? ॥४७ ।। [ ४८ ] 7 मूलश्लोकःवयं वै जानीमो निगमवचनात् साधुकथनात् , कथं माद्गलोको भवजलनिर्यास्यति शिवम् । विदन् सर्वं स्वस्मिन् त्रिभुवनविदा केवलदृशा , विनायासं कञ्चिद् वदवरमुपायं भवगुरो ।। ४८ ।।
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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