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प्रादिनाथ-ऋषभदेवप्रभोः पादार्पणं तत्र अन्यस्मात् स्थानात् सञ्जातमिति संश्रुत्य महद्धि-समन्वितोऽसौ वन्दनार्थं जगाम ।। ४६ ।।
* हिन्दी अनुवाद-श्रीआदिनाथ-ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती थे । उन्होंने अपने विशाल भुजाबल तथा सुभटसेनाबल से षट्खण्ड पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया था। एक बार जब वे विजयश्री प्राप्त करके गज, अश्व तथा पदाति सेना के साथ ध्वज लहराती सुसज्जित विनीतापुरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने सुना कि परमाराध्य परमपूज्य श्री आदीश्वर प्रभु का पदार्पण हुआ है, तो वे अविलम्ब, नितान्त विनीत भाव से सेना के साथ ही प्रभु का वन्दन करने के लिए श्रीऋषभदेव भगवान के समीप गये ।। ४६ ।।
[ ४७ ] - मूलश्लोकःनमन् मौलि नत्वा त्रिभुवनगुरु दुर्लभपदं , निसिञ्चन् तत् पादौ नयनसलिलैः प्रातिजनितः । तदा प्रोचे प्रोत्या मधुरवचनं योजितकरः , भवद्भिर्ना ग्राह्य वसनमशनं सादृशजनात् ॥ ४७ ॥
+ संस्कृतभावार्थः-परमविनोतैव चक्री नम्रण निज
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