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* हिन्दी अनुवाद-श्री जिनेश्वरदेव अनाथों के और दीनों के भी नाथ हैं। वे सर्वसुरासुरेन्द्रों के द्वारा पूजनीय हैं। किन्तु वे भी पहले जन्मादि प्रक्रिया से गुजरते हुए अनादिकालिक संचित कर्म को घोर तपस्या तथा भावपूजनादि के द्वारा दूर करके लोकालोकप्रका'क केवलज्ञान को प्राप्त करके अघाति कर्मों का भी समूल उन्मूलन करके अपुनरावृति नियम वाली मोक्षपुरी को प्राप्त करते हैं । शिवपुरो की प्राप्ति में ज्ञान-ध्यान की प्रक्रिया भी भावपूजा का अंग है। अतः पूजा अनादि तथा सतत उपादेय है ।। ४५ ।।
[ ४६ ] - मूलश्लोकःतदानीं तत्पुत्रो भरत इति चक्रो क्षितिपतिः , भुवं जित्वा सर्वां स्वभुजबलवीर्येण सुभटैः । विनीतोऽसौ भूमि ध्वज-रथ-गजाद्य ः परिवृतां , गुरु प्राप्तं श्रुत्वा बलगजयुतोऽगात् प्रगतये ॥ ४६ ॥
संस्कृतभावार्थः-पासीद् श्रीआदिनाथ - ऋषभदेवस्य प्रथमपुत्रो भरतः चक्रवर्ती। स सुभटसेनया निजभुजबलेन च षड्खण्डेषु विजयमवाप्य गजाश्वपदातिभिः ध्वजापताकादिभिः सुसज्जितां विनीतापुरी प्रपेदे । तदैव श्री