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तृषादिक निवर्त्तक होने से मात्र देह शरीर रक्षा ही करता दिखाई देता है, किन्तु जैसे वृक्ष को सींचने से वृक्षवृद्धि के साथ-साथ फल, फूल, छाया, श्रौषध तथा ईंधनादिक अनेक लाभ होते हैं ठीक उसी प्रकार सुपात्र को भी उस दान से अनेक लाभ होते हैं । सुपात्र संयमी स्वयं धर्म प्राराधना, ज्ञान-ध्यान साधना करता है तथा निष्णात होकर अन्य जन को भी प्रेरित करता है । इस प्रकार क्रमशः सुपात्रदान मोक्ष का साधक भी सिद्ध होता है । यह अतिशयोक्ति नहीं, अपितु जैनागमों तथा शास्त्रों के विविध प्रकार के कथानकों से प्रमाणित है ।। ४० ।।
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मूलश्लोक:
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जलेऽनन्ता जीवा जिनवरमरालैर्निगदिताः तथैवाग्निर्वायुस्तृणफलसमूहेऽपि च तथा । कणानां यच्चूर्णं विमृशतु बुधो मीलितदृशा, निहत्यैताञ्जीवान् परिणमति भोज्यं रसमयम् ॥ ४१ ॥
5 संस्कृत भावार्थ:- केचिद् विरोधिन प्राक्षिपन्तिजलबिन्दौ, अग्निकाये, वायुकाये तृणपुष्पादिषु वनस्पतिकायेषु अनन्ता जीवा भवन्ति इति लोकालोकज्ञात्राभगवता श्रीजिनेश्वरदेवेन प्रतिपादितम् । पूजायामेतेषां पदार्थाना
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